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________________ | चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक LESSON FOUR एकाकी चर्या-विवेक १६३. गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स 'दुज्जातं दुप्परक्कंतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो। वयसा वि एगे बुइआ कुप्पंति माणवा। उन्नयमाणे य णरे महया मोहेण मुज्झति। संबाहा बहवे भुज्जो भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। एयं ते मा होउ। एयं कुसलस्स दंसणं। तद्दिवीए तम्मुत्तीए तप्पुरकारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे। जयं विहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाई पलिबाहरे पासिय पाणे गच्छेज्जा। से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे। १६३. जो भिक्षु अव्यक्त (-अपरिपक्व) अवस्था में ही अकेला ग्रामानुग्राम विहार करता है (उसका एकाकी विहार) दुर्यात (-उपद्रवों सहित) और दुष्पराक्रम (-साधना मार्ग के प्रतिकूल) है। अव्यक्त मानव (अल्पमात्र प्रतिकूल-) वचन सुनने पर भी कुपित हो जाते हैं। एकाकी विचरण करता हुआ वह स्वयं को उत्कृष्ट मानने के अहंकार से मोह मूढ़ हो जाता है। उपसर्गों एवं रोग-आतंक आदि संबाधाओं-पीड़ाओं से बार-बार पीड़ित हो जाता है। अज्ञानी और अतत्त्वदर्शी उन बाधाओं को पार नहीं पा सकता है, वे बाधाएँ उसके लिए दुर्लंघ्य होती हैं। मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूँ, ऐसा विचार तुम्हारे मन में कदापि न आवे। यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है। परिपक्व साधक उस (-वीतराग महावीर के दर्शन) में ही एक मात्र दृष्टि रखे, उनके द्वारा प्ररूपित मार्ग में तन्मय हो जाय, उसी को सम्मुख रखकर विचरण करे, उसी की स्मृति सतत रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। ___ मुनि यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में ही एकाग्र रखे, पथ का सतत अवलोकन करते हुए चले। जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे। ( २७० ) आचारांग सूत्र Illustrated Acharanga Sutra GHODHPGEDS OS Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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