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________________ ११६. तम्हाऽतिविज्जं परमं ति णच्चा, आयंकदंसी ण करेइ पावं । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिछिंदियाणं णिक्कम्मदंसी । ११६. इसलिए वह उत्तम ज्ञानी परम - मोक्ष पद को जानकर तथा हिंसा आदि में नरक आदि का आतंक - (कष्ट) दुःख देखता हुआ पापकर्म का आचरण नहीं करता । ! तू दुःख और मूल का विवेक कर । उसे पहचान । रागादि बन्धनों को परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी बन जा । कर्मरहित हो । 116. Therefore that highly learned one, knowing about the ultimate state (liberation) and visualizing the torments of hell in violence and other such activities, does not indulge in sinful activities. O patient one! Judge the tip and root of sorrow (recognize it). Break the bonds of attachment (etc.) and reach the karmaless state (free of karmas). विवेचन- आतंकदर्शी पाप नहीं करता; इस पद का रहस्य है - " कर्म या हिंसा के कारण दुःख होता है ।" जो इस सत्य को जान लेता है, वह आतंक को जान लेता है इसलिए वह आतंकदर्शी है । वह स्वयं पापकर्म नहीं करता, न दूसरों से कराता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है। 'अग्र' और 'मूल' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। जैसे - वेदनीयादि चार अघाति कर्म अग्र हैं। मोहनीय आदि चार घाति कर्म मूल हैं। मोहनीय सब कर्मों का मूल है, शेष सात कर्म अग्र हैं । मिथ्यात्व मूल है, शेष अव्रत - प्रमाद आदि अग्र हैं। साधक कर्मों के अग्र अर्थात् परिणाम और मूल अर्थात् जड़ ( मुख्य कारण) दोनों पर विवेक-बुद्धि से चिन्तन करता है। किसी भी दुष्कर्मजनित कष्ट के केवल अग्र = परिणाम पर विचार करने से वह मिटता नहीं, उसके मूल पर ध्यान देना जरूरी है। कर्मजनित दुःखों का मूल मोहनीय कर्म है, शेष सब उसके पत्र - पुष्प हैं। 'पलिछिंदियाण णिक्कम्मदंसी' के भावार्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने बताया है - तप और संयम के द्वारा राग-द्वेषादि को या उनके कार्यरूप कर्मों को सर्वथा छिन्न करके आत्मा निष्कर्मदर्शी हो जाता है। निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ हो सकते हैं - ( १ ) कर्मरहित शुद्ध आत्मदर्शी, (२) राग-द्वेष के सर्वथा छिन्न होने से सर्वदर्शी, (३) वैभाविक क्रियाओं ( कर्मों - व्यापारों) के सर्वथा न होने से अक्रियादर्शी, और (४) जहाँ कर्मों का सर्वथा अभाव है, ऐसा मोक्षदर्शी | आचारांग सूत्र ( १७४ ) Jain Education International For Private Personal Use Only Illustrated Acharanga Sutra www.jainelibrary.org
SR No.007646
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages569
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size21 MB
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