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________________ [१३] है। योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न बह कर भिन्न भिन्न विषयोंमें टकराती हैं, और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं। इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, क्या लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभीको अपनी नाना शक्तियोंको केन्द्रस्थ करेनेके लिय योग ही परम साधन है। व्यावहारिक और पारमार्थिक योग-- योगका कलेवर एकाग्रता है, और उसकी आत्मा अहंत्व ममत्वका त्याग है। जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रताके साथ साथ अहत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है। यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्तिमें-चाहे वह दुनियाकी दृष्टिमें बाह्य ही क्यों न समझी जाती हो- ' वर्तमान हो तो उसे पामार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोगमें कही गई है। १ अ०२ श्लोक ४८योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय !! सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ - -
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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