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________________ [ १२ ] श्रत एव ज्ञान योगका कारण है । परन्तु योग के पूर्ववर्ति जो ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता है । और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्क होता है । इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक ज्ञानकी एक मात्र कुंजी योग ही है । आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोइ भी योग हो, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाणमें पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाण में होता है । सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी है । जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवाशिष्ठकी परिभाषायें ज्ञानवन्धु १ इसी अभिप्राय से गीता योगिको ज्ञानीसे अधिक कहती है. गीता अ० ६ श्लोक ४६--- तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कर्मभ्यचाधिको योगी तस्माद् योगी भवार्जुन ! ॥ २ गीता अ० ५. श्लोक ५ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपिं गम्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ३ योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध सर्ग २१व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानवन्धुः स उच्यते || आत्मज्ञानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टचेष्टं ते ते स्मृता ज्ञानवन्धवः ॥ इत्यादि.
SR No.007442
Book TitleYogdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlal Sanghavi
Publication Year
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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