________________
अर्थात्-गृहस्थावासको छोडकरके, साधु, निरपेक्षी हो कर, अ. पनी कायाको वोसिरावे, अर्थात्-शरीरपर ममत्वभाव न रख करके निदान रहित, और जीने-मरने की नहीं आकांक्षा करते हुए एवं संसारसे विप्रमुक्त होते हुए विचरे । " सुयख्खायधम्मे वितिगिच्छतिण्णे, लाढेचरे आयतुले पयासु । आयंन कुज्जा इहजीवियही चयं न कुजा सुतबस्सि भिक्खू ॥३॥
(प्र० श्रु० अ० १०, पृ० ४०१) अर्थात्-( परमात्माके कहे हुए ) श्रुताख्यात धर्ममें शंका रहित रहे निर्दोष आहारको ले, समस्त जीवोंको आत्मतुल्य माने । अपने जीवनके लिये आश्रवको न सेवे अर्थात्-असंयमाव न करे । एवं सुतपस्वी साधु, धन-धान्यादिका संग्रह भी न करे । । अच्छा, और आगे चलिये
" जेहिं काले परिकंतं न पच्छा परितप्पर । ते धीरा बंधणमुक्का नावखंति जीविअं" ॥ १५ ॥
(प्र० श्रु० अ० ३, पृ० २१२ ) अर्थात्-जिसने समयपर (धर्ममें ) पराक्रम किया है, वह, पी. छली अवस्थामें पश्चात्ताप न करे। और वह धीरमनुष्य, बंधनसे मुक्त होते हुए जीवितव्यकी (असंयम जीवितव्य) आकांक्षा न करे।
" जीवितं पिट्टओ किच्चा अंश पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता , जे मग्गमणुसासई" ॥ १० ॥
. (प्र० श्रु०, अ० १५, पृ० ५४२ ) . अर्थात्-वह मनुष्य ( असंयम ) जीवितव्यका निषेध करके कर्मका नाश करे । और शुभ अनुष्ठानसे मोक्षके सम्मुख होते हुए जिन मार्गका आचरण करे ।