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________________ ३८ ओसवालों की उत्पत्ति ( ६ ) कलकत्ते के पुरातत्व विभाग ने शोध ( खोज ) एवं खुदाई का काम करते समय एक जैन मूर्ति प्राप्त की है, जिस पर शिलालेख भी अति है, पर वह पुराणा होने से बहुत जगह से खण्डित होगया है । फिर भी उस लेख में वीरात् ८४ वर्ष एवं श्री श्रीवंस जाति का नाम स्पष्ट दीखता है । अर्थात् श्री श्रीवंस जाति के किसी भावुक ने वीरात् ८४ वर्ष वीतने पर यह मूर्त्ति बनाई होगी ? श्री श्रीवंस जाति किस वर्ण की थी इसकी जाँच करने पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का एक शिलालेख मिलता है उसमें श्रीवंस जाति को उपकेश वंश की एक जाति बतलाई है । वह शिलालेख यहाँ उद्धृत किया जाता है | " संवत १५३० वर्षे माघ श्रे० देवा० भा० पाचु पु० महिराज सुश्रावकेण भा० अंचलगच्छेश जयकेशरी बिंबं प्र० श्री संघेन । शुद्धि १३ खंडे श्री श्रीवंशे ० हापा भा० पुहनी पु० ० मातर सहितेन पितृ श्रेयसे श्री सूरिणा । मुपदेशेन श्री सुमतिनाथ यदि ये दोनों श्री श्रीवंस जातिएँ एक हो है तो इस बात को मानने में भी कोई शङ्का की जगह नहीं रहती कि उपकेशवंश की उत्पत्ति वीरात् ७० वर्षों में हुई । (७) उपकेशपुर के मन्दिर की प्रतिष्ठा वीरात् ७० वर्षों बाद . हुई अनन्तर ३०३ वर्ष में महावीर की ग्रंथिछेदन का उपद्रव मचा । जिसकी शान्ति आचार्य श्री कक्कसूरि ने कराई यह विषय पट्टावली में निम्न लिखित प्रकार से उल्लेख मिलता है जो यहाँ उद्धृत है । तद्यथाः " स्वयंभू श्री महावीर स्नात्र विधिकाले कोऽसौ विधिः कदा किमर्थं च सञ्जातः ९ इत्युच्यते । तस्मिन्नेव देवगृहे अष्टान्हिकादिक महोत्सवं कुर्वतां तेषां मध्ये अपरिणतवयसां केषांचित् चित्ते इयं दुर्बुद्धिः संजाता । यदुत भगवतो महावीरस्य हृदये ग्रंथिद्वयं पूजां कुर्वतां कुशोभां करोति, अतः मशक
SR No.007293
Book TitleOswal Ki Utpatti Vishayak Shankao Ka Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1936
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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