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________________ जैन धर्म का प्रचार mmmmmmm में समय और साधनों की जरूरत है इसलिए अब केवल साधु समाज पर ही सब बोझा डाल के श्राप निश्चिन्त न बनें, विलास में ही अपनी जिन्दगी की सफलता न समझे । दो चक्र से रथ चलता है । सम्राट् चन्द्रगुप्त और सम्प्रति आपके ही पूर्वज थे उन्होंने अपने निज पुरुषों को अनार्य्य देश में भेज के मुनि आगमन जैसा क्षेत्र तैयार करवाया और बाद में मुनियों को उस प्रदेश में विहार की प्रार्थना की थी तो आपका भी कर्त्तव्य है कि आप भी क्रश्चियन और समाजियों की मुआफिक धर्म प्रचार करने में कमर कस कर तैयार हो जाइये । केवल लाखों करोड़ों का खर्चा कर सभा और महासभा के अन्दर लम्बे चौड़े भाषण कर रजिस्टरों के काराजों में प्रस्ताव पास कर जनता को धोखा न दें पर कुछ काम कर बतलावे । साधु आपकी सहायता करेंगे और साधुओं की आप सहायता करो कि पूर्व की भाँति हम प्रत्येक प्रान्त में जैन धर्म का प्रचार देखें और विश्व पवित्र जैन धर्म की छत्रछाया में अपना कल्याण करें। मैंने किस भावना से यह लेख लिखा है इस लेख के पढ़ने से ही आपको मालूम हो जायगा इस पर भी किसी का दिल दुखे तो मैं सदैव क्षमा प्रार्थी हूँ।
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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