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________________ प्रा० जै० इ० चौथा भाग सकोगे । नहीं हरगिज नहीं, समय आ पहुँचा है अब कायरता से काम नहीं चलेगा धर्मध्वजा हाथ में लेकर प्रत्येक प्रान्त में विहार करो और भगवान महावीर का स्याद्वाद और अहिंसा धर्म का सन्देश प्रत्येक प्राणी के हृदय में पहुँचा दो तब ही पूर्वाचार्यों की मुत्राफिक आपका सुयशः और धवल कीर्ति विश्वव्यापी बनेगी। जैन धर्म का खास ध्येय आत्म कल्याण और मोक्ष प्राप्त करने का है इसी उद्देश्य से इस धर्म का नियम सख्त से सख्त रक्खा गया था जिसको दृढ़ शक्ति वाला अर्थात् वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाला ही पाल सके । वे ढाई हजार वर्षों पूर्व दृढ़शक्ति वालों के नियम अाज के मनुष्यों के लिए भी मौजूद हैं हाँ बीच में आपत्ति के समय उन नियमों में कुछ परिवर्तन किया भी गया था जिसके उल्लेख छेदसूत्रों और भाष्य चूर्णियों के अन्दर पाये जाते हैं तत्पश्चात् न तो ऐसा कारण हुआ न परिवर्तन भी हुआ पर जैसे जैसे गच्छमत जुदे होतेगये वैसे वैसे संकीर्णता और भी बढ़ती गई और उसके साथ माया और दम्भ ने भो अपना दाव खेला। इससे लोक रुचि में भी परिवर्तन होता गया कल्याण का स्थान ममता ने ग्रहण किया "गगी दोष न पश्यते" "द्वषी गुण न पश्यते” यह वाड़ाबन्धी का मुख्य कारण हुआ। इसने ही धर्म प्रचार की बुद्धि व वीरता का लोप किया। यदि माया, दम्भ, ममता और वाड़ाबन्धी आज हमारे आचार्यों और मुनियों का पीछा छोड़ दे तो यह वीरों की सन्तान वीर है और अपनी वीरता का परिचय देने को तैयार है। समाज के नेताओ! आप जानते हैं कि मुनियों के व्रत नियम बड़े ही कठिन हैं वे पदचारी हैं, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में जाने
SR No.007290
Book TitlePrachin Jain Itihas Sangraha Part 04 Jain Dharm ka Prachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpamala
Publication Year1935
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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