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________________ प्रस्तावना १९. वैदिक आचार्यों में शंकराचार्य ने शांकरभाष्य में स्याद्वाद को संशयरूप लिखा है इसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानों के माथे में पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारवश स्यात् का अर्थ शायद लिख ही जाते हैं। जब यह स्पष्ट रूप से अवधारण करके कहा जाता है कि-'घटः स्यादस्ति' अर्थात् घड़ा अपने स्वरूप से है ही। घटः स्यान्नास्ति-घट स्वभिन्न स्वरूप से नहीं ही है। तब संशय को स्थान कहाँ है? स्यात् शब्द जिस धर्म का प्रतिपादन किया जा रहा है उससे भिन्न अन्य धर्मों के सद्भाव को सूचित करता है। वह प्रति समय श्रोता को यह सूचना देना चाहता है कि वक्ता के शब्दों से वस्तु के जिस स्वरूप का निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जब कि संशय और शायद में एक भी धर्म निश्चित नहीं होता । जैन के अनेकान्त में अनन्त धर्म निश्चित है, उनके दृष्टिकोण निश्चित हैं तब संशय और शायद की उस भ्रान्त परम्परा को आज भी अपने को तटस्थ माननेवाले विद्वान् भी चलाए जाते हैं यह रूढ़िवाद का ही माहात्म्य है। इसी संस्कारवश प्रो० बलदेवजी स्यात् के पर्यायवाचियों में शायद शब्द को लिखकर (पृ. १७३) जैन दर्शन की समीक्षा करते समय शंकराचार्य की वकालत इन शब्दों में करते हैं कि-"यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टि से वह पदार्थों के विभिन्न रूपों का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनुस्यूत परम तत्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर शंकराचार्य ने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक खण्डन अपने शारीरक भाष्य (२, २, ३३) में प्रबल युक्तियों के सहारे किया है।" पर उपाध्याय जी, जब आप स्यात् का अर्थ निश्चित रूप से 'संशय नहीं मानते तव शंकराचार्य के खण्डन का मार्मिकत्व क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व० महामहोपाध्याय डा. गंगानाथ झा के इन वाक्यों को देखें-"जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खंडन पढ़ा है, तब से मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा।" श्री फणिभूषण अधिकारी तो और स्पष्ट लिखते हैं कि-"जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह नहीं की।" जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार वस्तुस्थिति के आधार से समन्वय करता है। जो धर्म वस्तु में विद्यमान हैं उन्हीं का समन्वय हो सकता है। जैनदर्शन को आप वास्तव बहुत्ववादी लिख आये हैं। अनेक स्वतन्त्र सत् व्यवहार के लिए सर्प से एक कहे जायँ पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नही हो सकता? यह कैसे सम्भव है कि चेतन और अचेतन दोनों ही एक सत् के प्रातिमासिक विवर्त हो। जिस काल्पनिक 'समन्वय की ओर उपाध्याय जी संकेत करते हैं उस ओर भी जैन दार्शनिकों मे प्रारम्भ से ही दृष्टिपात किया है। परम संग्रह नय की दृष्टि से सदूप से यावत् चेतन अचेतन द्रव्यों का संग्रह करके 'एकं सत्' इस शब्दव्यवहार के होने में जैन दार्शनिकों को कोई आपत्ति नहीं है। सैकड़ों काल्पनिक व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था नहीं की जा सकती? एक देश या एक राष्ट्र अपने में क्या वस्तु है ? समय समय पर होने वाली बुद्धिगत दैशिक एकता के सिवाय एकदेश या एक राष्ट्र का स्वतन्त्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा जुदा भूखण्डों का अपना है। उसमें व्यवहार की सुविधा के लिए प्रान्त और देश संज्ञाएँ जैसे काल्पनिक हैं व्यवहारसत्य हैं उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिकसत् होकर व्यवहारसत्य बन सकता है और कल्पना की दौड़ का चरम बिन्दु भी हो सकता है पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त असम्भव है। आज विज्ञान एटम तक का विश्लेषण कर चुका है और सब मौलिक अणुओं की पृथक सत्ता स्वीकार करता है। उनमें अभेद और इतना बड़ा अभेद जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त आदि सभी लीन हो जॉय कल्पनासाम्राज्य की अन्तिम कोटि है।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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