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________________ १८ न्यायविनिश्चयविवरण यह है कि यदि पर की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़े में तुम रहते हो वह घड़ा घड़ा ही न रहेगा कपड़ा आदि पररूप हो जायगा। अतः जैसी तुम्हारी स्थिति है वैसी ही पर रूप की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म की भी स्थिति है तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिए अहिंसा का प्रतीक 'स्यात्। शब्द तुमसे पहले ही वाक्य में लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि अनन्त भाइयों को वस्तु में रहने देते हो और बड़े प्रम से सबके सब अनन्त धर्मभाई रहते हो, पर इन वस्तुदर्शियों की दृष्टि को क्या कहा जाय । इनकी दृष्टि ही एकाङ्गी है । ये शब्द के द्वारा तुममें से किसी एक 'अस्ति'आदि को मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहङ्कार पूर्ण कर देना चाहते हैं जिससे वह 'अस्ति' अन्य का निराकरण करने लग जाय। बस, 'स्पात्' शब्द एक अञ्जन है जो उनकी दृष्टि को विकृत नहीं होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णदर्शी बनाता है। इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्द को सुधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भावना के प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, सुनिश्चित अपेक्षाद्योतक 'स्यात्' शब्द के स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकों ने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूप का 'शायद, संभव है, कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्यायों से विकृत करने का दुष्ट प्रयत्न अवश्य किया है तथा किया जा रहा है। __ सब से थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि घड़ा जब अस्ति है तो नास्ति कैसे हो सकता है, घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है' पर विचार तो करो घड़ा घड़ा ही है, कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोड़ा नहीं, तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि 'घड़ा अपने स्वरूप से अस्ति है, घटभिन्न पररूपों से नास्ति है। इस घड़े में अनन्त पररूपों की अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो दुनिया में कोई शक्ति घड़े को कपड़ा आदि बनने से नहीं रोक सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घड़े को घड़े रूप में कायम रखने को हेतु है। इसी नास्ति धर्म की सूचना 'अस्ति' के प्रयोग के समय 'स्यात्' शब्द दे देता है। इसी तरह घड़ा एक है। पर वही घड़ा रूप रस गन्ध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त शक्तियों की दृष्टि से अनेकरूप में दिखाई देता है या नहीं ? यह आप स्वयं बतावें। यदि अनेक रूप में दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट होता है कि घड़ा द्रव्य एक है, पर अपने गुण धर्म शक्ति आदि की दृष्टि से अनेक है।। कृपा कर सोचिए कि वस्तु में जब अनेक विरोधी धर्मों का प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मों का अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब हमें उसके स्वरूप को विकृत रूप में देखने की दुर्दष्टि तो नहीं करनी चाहिए। जो 'स्यात्' शब्द वस्तु के इस पूर्ण रूप दर्शन की याद दिलाता है उसे ही हम 'विरोध संशयः जैसी गालियों से दुरदुराते हैं किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यान में आ जाता है कि 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्।' अर्थात्-यदि यह अनेक धर्मरूपता वस्तु को स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है तो हम बीच में काजी बनने वाले कौन ? जगत् का एक एक कण इस अनन्तधर्मता का आकार है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनाने की आवश्यकता है । वस्तु में कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टि में है। और इस दृष्टिविरोध की अमृतौषधि 'स्यात्' शब्द है, जो रोगी को कटु तो जरूर मालूम होती है पर इसके बिना यह दृष्टिविषम-ज्वर उतर भी नहीं सकता। प्रो. बलदेव उपाध्याय ने भारतीय दर्शन (पृ० १५५) में स्यावाद का अर्थ बताते हुए लिखा है कि-"स्यात् (शायद, सम्भवतः) शब्द अस् धातु के विधिलिङ के रूप का तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है। घड़े के विषय में हमारा परामर्श ‘स्यादस्ति = संभवतः यह विद्यमान है' इसी रूप में होना चाहिए।" यहाँ 'स्यात्' शब्द को शायद का पर्यायवाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते । इसीलिए वे शायद शब्द को कोष्ठक में लिखकर भी आगे 'संभवतः' शब्द का समर्थन करते हैं।
SR No.007279
Book TitleNyayvinischay Vivaran Part 01
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorMahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages618
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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