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________________ ...प्रथम परिच्छेद [१७ " अर्थ-लक्ष्मीकू हाथीके कानसमान चंचल देखि करि अर तृणनिको अनीपर लग्या जलकी स्थिति समान जीवितव्य देखकरि अर यौवन अतिशयकरि जानेवाला देखि करि महंत पुरुष धर्म कैसें न करें हैं ? करेंही हैं ॥५७॥ अनश्वरी यो विदधाति लक्ष्मी, विधूय सर्वां विपदं क्षणेन । कथं स धर्मः क्रियते न, सद्धिस्त्याज्येन देहेन मलालयेन ॥५८॥ अर्थ-जो धर्म क्षणमात्रमें सर्व विपदानिकौं दूरि करि अविनश्वर लक्ष्मीकू करहै सो धर्म सत्पुरुषनिकरि मलका घर अर त्यागने योग्य ऐसे देहकरि कैसे न करिये है ॥५८।। पिंडं ददाना न नियोजयंते, कलेवरं भृत्यमिवात्मनीने । कार्ये सदा ये रचितोपकारे, ते वंचयंते स्वयमेव मूढाः ॥५६॥ अर्थ-जे पुरुष भोजन देते सन्ते अर शरीरको चाकरकी ज्यों सदाकाल कऱ्या है उपकार जानें ऐसे अपने हितरूप कार्यविषं न लगाव हैं ते मूढ़ स्वयमेव ठिगावें हैं। भावार्थ-जैसें कोई चाकरकौं भोजनादि सामग्री तौ देवै अर अपने हितरूप कार्यमें न लगावै तब वो स्वछन्द होय है अर मालिक ठिगाया जाय है तैसें शरीरकौं भोजनादि..सामग्रीतें तो पोषेहैं अर हितरूप. तपश्चरणादि कार्य में न लगावें हैं ते ठिगाये जाय हैं ऐसा जानना ॥५६॥ गृहांगजापुत्रकलत्रमित्रस्व स्वामिभृत्यादिपदार्थवर्गे । विहाय धर्म न शरीरभाजामिहास्ति किंचित्सहगामि पथ्यम् ।६०। अर्थ-इस लोकमें गृह, पुत्री, पुत्र, स्त्री, मित्र, धन, स्वामी चाकर आदि पदार्थनिके समूहविर्षे धर्मकौं छोड़ और किछु जीवनिके साथ जानेवाला हितकारी नाहीं। भावार्थ-इस जीवका साथी धर्म ही है और पदार्थ साथी नाहीं ॥६०॥ घातिक्षयोद्भूतविशुद्धबोध, प्रकाराविद्योतितसर्वतत्त्वाः । भवंति धर्मेण जिनेन्द्रचन्द्रा, स्त्रि तोकनाथाचितपादपद्माः ॥६१॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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