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श्री अमितगति श्रावकाचार
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निसेब्यमाणानि वचांसि येषां जीवस्य कुर्वत्यजरामरत्वम् । नाराधनीया गुरवः कथं ते, विभीरुणा संसृतिराक्षसीतः ॥ ५३ ॥
श्रथं - जिन आचार्यनके वचन सेवन किये भए जीवकें अजरामरणना करिए हैं वे गुरु संसाररूप राक्षसीतें डरे भए पुरुष करि कैसे आरधना न किए जाय हैं, अपितु आराधना किए ही जाय हैं ॥ ५३ ॥ माता पिता ज्ञातिनराधिपाद्या, जीवस्य कुर्वत्युपकारजातम् । यत्सूरिदत्ताम धर्मनुन्ना, स्तेनेष तेभ्योतिशयेन पूज्यः ॥ ५४ ॥
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अर्थ - माता पिता जाति राजा आदिक जे हैं ते आचार्य करि दिये हुए निर्मल धर्म से प्रेरित हुए थके जीवके उपकारनिके समूहकों करे हैं अर आचार्य विना प्रेरे हुए ही करें हैं तातें या अतिशय करि गुरु जो है सो माता पिता जाति राजादिक करि भी पूज्य हैं ॥ ५४ ॥ निषेवमाणो गुरुपादपद्मं त्यक्तान्यकर्मा न करोति धर्मम् । प्ररूढसंसारवनक्षयाग्नि, निरर्थकं जन्म नरस्य तस्य ॥५५॥
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अर्थ - छोड़े हैं अन्य कार्य जानें ऐसा गुरुके चरणकमलको ही सेवन करें ऐसा जो पुरुष, अंकुरित ऐसा जो संसार वन ताके नाश करने में अग्नि समान ऐसे धर्मौं न करें है वा पुरुषका जन्म निरर्थक है ।। ५५ ।। ये सूरयो धर्मधिया ददंति, यं बांधवः स्वार्थधिया जनानाम् । अर्थं तयोरन्तरमत्र वेषं स्ताणुमेर्वोरिव जायमानम् ॥५६॥
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अर्थ – जो अर्थकौं आचार्य तौ धर्मबुद्धिकरि मनुष्य निकौं देवें हैं अर भाई बन्धु जन स्वार्थ बुद्धिकरि देवें हैं सो यहां सत्पुरुषनिकरि इन दोऊनि में परमागु अर मेरुमें होय ऐसे अन्तर समान अन्तर जानता योग्य हैं ।
मावार्थ - आचार्य अर भाई बन्धुनिमें इतना अन्तर है जितना सुमेरु अर परमा में है ||५६।।
लक्ष्मीं करों. श्रवण स्थिरत्वां तृणाग्रतोयस्थिति जीवितव्यम् । विसृत्व यौवनिकां च दृष्टवा, धर्मं न कुर्वति कथं महांतः ॥५७॥
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