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एकादश परिच्छेद
न होय है ।
अर्थ - रोगनि करि पीडित जो साधु सो व्रतनिकी रक्षा विषं समर्थ . वहुरि आकुलता सहित जीवनि करि निराकुल कार्य कदाच करनेकौं समर्थ न हूजिये है ||३५||
न जायते सरोगत्वं जन्तोरौषधदायिनः ।
पावकं सेवमानस्य तुषारं हि पलायते ॥ ३६॥
अर्थ - औषध देनेवाले पुरुषकै सरोगपना न होय है, जातें अग्निक पुरुषका शीत दूर भागे है ||३६||
सेवते
श्राजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः ।
किं सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मनः ॥ ३७॥
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अर्थ-जाकै जन्मतें लगाय शरीरकौं ताप उपजावनेवाला रोग न होय है तिस सिद्ध समान महात्माका सुख कहां कहिए । इहां सिद्ध समान का सो जैसें सिद्धनिकौं रोग नाहीं तैसें याकै भी रोग नाहीं, ऐसी समानता देखि उपमा दीनी है, सर्व प्रकार सिद्ध न जान लेना ॥३७॥
निधानमेष कांतीनां कीर्तिनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भेषज्यं येन दीयते ॥ ३८ ॥
अर्थ - जा पुरुष करि औषध दीजिए है सो यहु पुरुष कांति कहिये दीप्तिनिकां तौ भण्डार होय है, अर कीर्तिनिका कुलमन्दिर होय है जामैं यश कीर्ति सदा वसै है, बहुरि सुन्दरतानिका समुद्र होय है जानना ||३८||
ध्वांतं दिवाकरस्येव शोतं चित्ररुचेरिव ।
भैषज्यदायिनो देहाद्रोगित्वं प्रपनायते ॥ ३६ ॥