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________________ अष्टम परिच्छेद [१८७ आगै आसनका वर्णन करें हैं;आस्थते स्थीयते यत्र, येन वा वंदनोद्यतः । तदासनं विवोद्धव्यं, देशपद्मासनादिकम् ॥३८॥ अर्थ-वन्दना करने मैं उद्यमी जे पुरुष तिनकरि जाविर्षे वा जाकरि आस्यते कहिये स्थिररूप हूजिए सो देश कहिए क्षेत्र अर पद्मासनादिक आसन जानने योग्य हैं । ऐसे आसन शब्दकी निरुक्ति करी ॥३८॥ आगें आवश्यक करनेके अयोग्य क्षेत्रनिकौं कहै हैं :संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्तुणपांश्वादिदूषितः । विक्षोभको हृषीकाणं, रूपगन्धसादिभिः ॥३६॥ परीषहकरो दंशशीतवातातपादिभिः । असंबद्धजनालापः सावद्यारम्भगहितः ॥४०॥ प्रार्द्राभूतो मनोऽनिष्टः समाधाननिषूदकः । योऽशिष्ट जनसंचारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ॥४१॥ अर्थ-संसक्त कहिये स्त्रीपुरुष नपुंसकादिकनिकी भीड़ जहां होय । बहुरि बहुत छिद्रनकरि युक्त होय, अर तृण धूलि आदि करि दूषित होय, बहुरि रूप गन्धरस इत्यादिकनि करि इन्द्रियनिकौं विशेष क्षोभ करनेवाला होय ॥३८॥ बहुरि शीत बात दंश आताप आदि करि परीषहका करनेवाला होय, बहरि असंबद्ध कहिए सम्बन्धरहित निःप्रयोजन मनुष्यनिका जहां वचनालाप होय, बहुरि पापसहित आरम्भ करि निंदित होय ॥४०॥ चालो होय, मनको अनिष्ट होय, समाधानका नाश करनेवाला होय, अर नीच लोकका जहां संचार होय ऐसा होय ता क्षेत्रकौं त्यागें ॥४१॥ .... भावार्थ-आवश्यक करनेवाला पूर्वोक्त क्षेत्रकौं चित्तकौं क्षोभकारी जानि परित्याग करै ।। आणे आवश्यक योग्य स्थानकौं कहै हैंविविक्तः प्रासुकः सेव्यः, समाधानविवर्धकः । देवर्जु दृष्टिसंपातजितो, देवदक्षिणः ॥४२॥ ......
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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