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________________ १८६] श्री अमितगति श्रावकाचार । अर्थ-द्रव्य क्षेत्र आदि शब्दतै काल अर भाव इन विषं लगे जे दोष तिनके समूहका विशेष शोधना निन्दा गर्दादि क्रिया सहित सो प्रतिक्रमण कहिए है। ___ भावार्थ-निंदा गर्हास हित लगे दोषनकौं याद करि निराकरण करन सो प्रतिक्रमण करना सो प्रतिक्रमण कहिए ॥३४॥ आगें प्रत्याख्यानका स्वरूप कहैं हैं - नामादीनामयोग्यानां, षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागम्यागोनिषिद्धये ॥३५॥ अर्थ-अयोग्य जे नामादिक कहिए नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भाव छहौंनकौं आगामी पापके निषेधके अर्थ मन, वचन, काय करि त्याग करना सो प्रत्याख्यान कह्या है । भावार्थ-आगामी पापका त्याग करनेकै अथि अयोग्य द्रव्यादिका त्याग करना सो प्रत्याख्यान कहिए ॥३५॥ आर्ग कायोत्सर्गकौं कहैं हैं आवश्यकेषु सर्वेषु, यथाकालमनाकुलः । कायोत्सर्गस्तनूत्सर्गः, प्रशस्तध्यानवर्धकः ॥३६॥ अर्थ-सर्व आवश्यक क्रियान विर्षे जिन काल चाहिए तिस ही काल आकुलता रहित शरीर विर्षे ममत्वका त्याग सो प्रशस्त ध्यानका बढ़ावनेवाला कायोत्सर्ग है। भावार्थ-सामायिकादि क्रियानि विर्षे यथाकाल शरीरसैं ममत्व त्यागना सो कायोत्सर्ग कहिए ॥३६॥ ..''आगै आवश्यक क्रियानिमैं आसनादिकका विधान कहैं हैं शेयस्तत्रासनं स्थानं, कालो मुद्रा तनत्सृतिः । नामावलप्रभा दोषा, षडावश्यककारिभिः ॥३७॥ मर्थ-छह आवश्यक करनेवाले पुरुषनि करि तहां आसन १ स्थान, १ काल, १ मुद्रा, १ कायोत्सर्ग, १ प्रणाम, १ आवत, १ प्रमाण दोष इतनी वस्तुका जानना योग्य है ॥३७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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