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________________ प्रथम परिच्छेद [ ५ धान्यका बीजसमान, अर फैर रह्या जो पापकर्म ताके उपशम करि उपज्या ऐसा है । भावार्थ - इस असारसंसारविषं मनुष्यपना दुर्लभ है, बड़े पापके उपशम करि होय है, जातें इस ही करि मोक्षका कारन तपश्चरणादि होय सकै है ॥११॥ नरेषु चक्री त्रिदशेषु बज्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु । मतो महीभृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ॥१२॥ श्रर्थ - जैसे मनुष्यनिविषै चक्रवर्ती प्रधान है, अर देवनिविषे इन्द्र प्रधान है, अर मृगनिविषें सिंह प्रधान है, अर व्रतनिविषें प्रशमभाव प्रधान अर पर्वतनिविषं मेरु प्रधान है; तैसें भवनिविधें मनुष्यभव प्रधान , ॥१२॥ त्रिवर्गसारः सुखरत्नखानिर्धर्मः, प्रधानो भवतीह येन । सम्यक्त्वशुद्धाविव धर्मलाभः, प्रधानता तेन मतास्य सद्भिः ॥१३॥ अर्थ- जैसैं सम्यक्त्वकी शुद्धिता होतेसंतै धर्मका लाभ होय है तैसें इप नरभवविषै त्रिवर्ग जे धर्म अर्थ काम तिनविषै सार अर सुखरत्नकी खानि ऐसा प्रधान धर्म होय है; ता कारण करि इस नरभवकी प्रधानता संत न करि मानी है । मावार्थ - साक्षात् मोक्षका कारण धर्म नरभवविषं ही होय है तातें नरभव उत्तम कह्या है । यथा मणिर्भावगणेष्वनय, यथा कृतज्ञो गुणवत्सु लभ्यः । न सारवत्त्वेन तथांगिवर्गः, सुखेन मानुष्यभवो भवेषु ॥ १४ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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