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________________ ४] श्री अमितगति श्रावकाचार - अर्थ-जिनके चरनकमलकौं ध्यावता संता पुरुष शास्त्रसमुद्रके पारकों प्राप्त होय हैं, ते पवित्र गुणनि करि गुरवे ऐसे श्री गुरु मेरे श्रेष्ठ क्रियाक करहु ॥८॥ उपासकाचारविचारसारं, संक्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये । शक्नोति कत्तु श्रुतके,वीलभ्यो न व्यासतोऽन्योहि कदाचनापि ॥६॥ अर्थ-मैं जो हूँ शास्त्रकार सो श्रावकाचारके विचारका सारभूत शास्त्रकौं संक्षेपतें करूंगा । जातें श्रु तकेवलिनतें अन्य दूजा पुरुष विस्तार कहनेकू कदाचित् समर्थ नहीं है । भावार्थ-विस्तारसहिततो श्रुतकेवलीके सिवाय दूजा कौन कहै, मैं सो संक्षेपरूप क्षावकाचार कहूँगा ॥६॥ क्षुद्रस्वभावाः कृतिमस्तदोषां, . निसर्गतो यद्यपि दूषयंते । तथापि कुवंति महानुभावास्त्याज्या, न यूकाभयतो हि शाटी ॥१०॥ अर्थ-जो पुनः नीचपुरुष निर्दोष कार्यकौं स्वभाहहीतें दूषन लगावें हैं तो भी महान पुरुष कार्यकों करें हैं, जातें यूकानके भयतें साडी त्यागने योग्य नाही। भावार्थ-दष्टनिके भयतें सज्जन उत्तम कार्यकों न त्यागें जैसें लोक यूकानके भयतें वस्र न त्यागें ऐसा जानना ॥१०॥ संसारकांतारमपास्तसारं, बंभ्रम्यमाणो लभते शरीरी। कृच्छे ण नृत्वं सुखशस्यबीजं, प्ररूढदुःकर्मशमेन भूतं ॥११॥ प्रर्थ-साररहित संसारवनविषै अतिशयकरि भ्रमता यह जीव है सो कष्टकरि मनुष्यना पावै है। कैसा है मनुष्यपना, नित्यही सुखरूप
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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