SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®©®@GOGOG योग दृष्टि :- योग के अंग-गुण इत्यादि याकिनी महत्तरापुत्र, तर्क-सम्राट - अध्यात्म योगी सूरि पुरन्दर आचार्य महर्षि श्री हरिभद्रसूरिजी विरचित स्वोपज्ञटीका संयुक्त ___ श्री योगदृष्टि समुच्चय से .... योग के विविध अर्थ - आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़े वह योग (कर्मक्षय), मनवचन-काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति-वह योग, जो कर्मबंध का हेतु है वह योग, आत्मा पर आवरण रुप आए हुए कर्मों के बादल छंट कर जो गुणवत्ता प्रकट हुई है और गुणों का विकास की ओर गमन करना उसको योग कहते हैं। मोक्षेण योजनादिति योग । मोक्ष की योजना हो वह योग ! ऐसा योग जिस महात्मा को होता है वह योगी कहलाता है। तत्व का सत्य बोध वह सम्यगज्ञान । उस ज्ञान के द्वारा तत्व में हेय-ज्ञेय-उपादेय रूप में यथार्थ निवृत्ति और प्रवृत्ति वही सम्यग्चारित्र, सम्यक्ज्ञान के प्रभाव से रुचि-प्रेम और विश्वास ही सम्यग्दर्शन है। ज्ञान को शास्त्र बोध कहते हैं । यही बोध दृष्टि, वस्तु का स्वरूप जानने की आत्म शक्ति है, जिसे दृष्टि' कहते हैं । सांसारिक सुखों की ओर दृष्टि (ओघ दृष्टि) कहलाती है। दुःख के साधनों के प्रति द्वेष रखने वाला जीव, सुख के साधनों के प्रति राग रखने वाला जीव पत्थर जितने देवता को मानना, पूजना, धर्म करना, बाधा (आखड़ी) नियम लेना, जड़ी-बुटी से उपाय करना, पुद्गालिक सुख की इच्छा से धर्म करने वाला जीव होता है। दूसरी दृष्टि - योग दृष्टि - पुद्गालिक सुखों से निरपेक्ष (अनिच्छा) आत्मिक गुण विकासी जीव मोक्ष के साथ जुड़ने वाला होने से उसे योग दृष्टि जीव कहा है। ज्ञानवरणीय कर्म के क्षयोपशम और मोहनीय कर्म के क्षयोपक्षम से योग दृष्टि आती है। अत: पुरुषार्थ करना चाहिए। ७०७७०७00000000000139509090050505050505050605060
SR No.007276
Book TitleShrut Bhini Ankho Me Bijli Chamke
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Doshi
PublisherVijay Doshi
Publication Year2017
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy