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तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के पंचम पट्टधर
युगप्रभावक, विद्याधरकुलाधिनायक, महातेजस्वी, महाजनसंघ के प्रथम निर्माता हिंसा सिद्धान्त के महान् प्रचारक, यज्ञहवनादि के महान क्रांतिकारी विरोधी
श्रीमद् स्वयंप्रभसूर
जैनतीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर श्रीमद् शुभदत्ताचार्य थे और द्वितीय, तृतीय पट्टधर हरिदत्तसूरि और समुद्रसूरि अनुक्रम से हुये । चतुर्थ पट्टधर श्रीमद् केशीश्रमण थे । श्रीमद् केशीश्रमण भगवान् महावीर के काल में तिही प्रभावक आचार्य हुये हैं । ये भगवान् पार्श्वनाथ के संतानीय होने के कारण भगवान् महावीर के संघ से अलग विचरते थे । अलग विचरने के कई एक कारण थे। श्री पार्श्वनाथ प्रभु के संतानीय चार महाव्रत पालते थे और पंचरङ्ग के वस्त्र धारण करते थे । भगवान् महावीर के साधु पंच महाव्रत पालते थे और श्वेत रंग के ही वस्त्र पहिनते थे । छोटे २ और भी कई भेद थे । भेद साधनों में थे, परन्तु दोनों दलों की साधक आत्माओं में तो एक ही जैनतस्व रमता था; अतः दोनों में मेल होते समय नहीं लगा । गौतमस्वामी और इनमें परस्पर बड़ा मेल था । उसी का यह परिणाम निकला कि श्राचार्य केशीश्रमण ने भगवान् महावीर का शासन तुरंत स्वीकार किया और दोनों दलों में जो भेद था, उसको नष्ट करके भगवान् महावीर की आज्ञा में विचरने लगे । इनके पट्टधर श्रीमद् स्वयंप्रभरि हुये ।
श्रीमद् स्वयंप्रभसूरि विद्याधरकुल के नायक थे; अतः ये अनेक विद्या एवं कलाओं में निष्णात थे। आपने अपने जीवन में यज्ञ और हवनों की पाखण्डपूर्ण क्रियाओं को उन्मूल करना और शुद्ध हिंसा-धर्म का सर्वत्र प्रचार करना अपना प्रमुख ध्येय ही बना लिया था । ये बड़े कठिन तपस्वी और उग्रविहारी थे । जहाँ अन्य साधु विहार करने में हिचकते थे, वहाँ ये जाकर बिहार करते और धर्म का प्रचार करते थे ।