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________________ :: प्रस्तावना : अवलोकन किया और उनमें प्राप्त ऐतिहासिक साधन-सामग्री को उद्धृत और चिह्नित, संक्षिप्त रूप से उल्लिखित और निर्णीत किया । महामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, मंत्री विमलशाह आदि कई एक महापुरुषों के जीवनचरित्रों को इतिहास का रूप दे दिया गया । इन थोड़े महिनों में ही इतिहास - कार्य के निमित्त रात्री में एक-सा श्रम करना, बी. ए. की परीक्षा के लिये प्रातः स्वाध्याय करना, दिन में गुरुकुल की सेवा करना, बी. ए. की परीक्षा के पश्चात् प्रातःकाल में 'जैन-जगती' के छंदों का अर्थ नियमित रूप से लिखना ( जिनके लिये श्री श्राचार्य श्री के सदुपदेश से शाह हजारीमल वनेचंद्रजी ने ५०० ) का पारिश्रम्य सन् १६४६ जुलाई ६ को दिया था । ) यदि निरंतर बने रहे हुये श्रम के कारण मेरा स्वास्थ्य विकासोन्मुख नहीं रह सका और अब तक भी उसको अवसर नहीं मिल पाया है । [ भोपालगढ़ की श्री आप आश्चर्य करेंगे कि मैं ६ गुरुकुल की नींव का । 'शांति जैन पाठशाल' की उन्नति के लिये मैंने अपनी सर्व शक्तियां पूरी र लगादी थीं । नित्य और नियमित एक साथ पूरी पांच और कभी २, ७ कक्षाओं को अध्यापन जैन शिक्षण संस्थानों के कराता था और वह भी सर्व विषयों में । पाठशाला उन्नत हुई, विद्यार्थी अच्छे निकले; प्रति उदासीनता और परन्तु मुझको छोड़ने के लिये बाधित होना पड़ा। 'सादड़ी के गुरुकुल की सेवा भी सुमेरपुर में इतिहास कार्य बड़ी तत्परता, कर्तव्यपरायणता, एकनिष्ठता से की और फलतः छात्रालय में अपूर्व अनुशासन वृद्धिंगत रहा, परन्तु वहाँ से भी मुझको बाधित होकर छोड़ना पड़ा। बागरा के प्रस्तर ही मैंने अपने हाथों डाला था और सोचा था, यह मेरी साधना का कलाभवन होगा वह जन्मा, उन्नत हुआ, उसने स्वस्थ, चरित्रवान् परिश्रमी और प्रतिभावान् विद्यार्थी पैदा करने प्रारंभ किये कि मुझको वह भी छोड़ने के लिये विवश होना पड़ा । बागरा के गुरुकुल के छोड़ने के विचार पर मेरा मनं ही अब आगे जैन - शिक्षणसंस्थाओं की सेवा करने से उदासीन हो गया । परन्तु फिर भी गुरुमहाराज सा० के उद्बोधन पर और श्री ताराचंद्रजी के आग्रह पर 'श्री वर्द्धमान जैन बोर्डिंग' सुमेरपुर के गृहपतिपद को स्वीकार करके मैं ई० सन् १६४७ अप्रेल ६ को वहाँ पहुँचा और अपना कार्य प्रारंभ किया। प्राग्वाट इतिहास के लेखन के लिये मेरा वेतन जनवरी सन् १६४७ से ही ५०) के स्थान पर ६०) कर दिया गया था, अतः सुमेरपुर में छात्रालय की ओर से रु० १०० ) और इतिहास - कार्य के लिये रु०६०) कुल वेतन रु० १६० ) मिलने लगा । हम सब ने यही सोचा था कि इतिहास - कार्य के लिये सुमेरपुर में विशेष सुविधा और अनुकूलता मिलेगी, परन्तु हुआ उल्टा ही। छात्रालय के बाहर और भीतर दोनों ओर से व्यवस्था अत्यन्त बिगड़ी हुई थी । राजकीय स्कूल के अध्यापकों ने छात्रालय के छात्रों को श्रीमंतों के पुत्र समझ कर ट्यूशन का क्षेत्र बना रक्खा था । मैं जब छात्रालय में नियुक्त हुआ, उस समय लगभग १०० छात्रों में से चालीस छात्र व्य शन करवाते थे और अध्यापकों के घरों पर जाते थे। अध्यापक उन छात्रों को पढ़ाने की अपेक्षा इस बात पर अधिक ध्यान रखते थे. कि छात्र उनके हाथों से निकल नहीं जावे । वे सदा छात्रालय के कर्मचारियों और छात्रों में भेद बनाये रखने की नीति को दृष्टि में रख कर ही उनके साथ में अपना मोठा संबंध बढ़ाते रहते थे । संक्षेप में छात्रालय में अनुशासन पूर्ण भंग हो चुका था । फल यह हो रहा था कि छात्रगण अध्यापकों और छात्रालय के कर्मचारियों के बीच पिस रहे थे । स्कूल और छात्रालय दोनों में कडतर संबंध थे। मैं व्यशन को विद्यार्थियों के शोषण का पंथ मानकर
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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