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________________ :: प्राग्वाट-तिहास: श्री ताराचन्द्रजी से परिचय और इतिहास-लेखन श्री ताराचन्द्रजी मेघराजजी और मुझ में इतिहास-लेखन के कोई दो वर्ष पूर्व कोई परिचय नहीं था । व्याख्यानवाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा० के द्वारा हम दोनों वि० सं० २००० में परिचित आचार्य श्री से मेरा परिचय हुए और वह इस प्रकार । वि० सं० २००० में आचार्य श्री का चातुर्मास सियाणा और उनके कारण श्री (मारवाड़) में हुआ था। चातुर्मास पश्चात् आप श्री अपनी साधुमण्डली एवं शिष्यताराचंद्रजी से मेरा परिचय समुदाय सहित बागरा ग्राम में पधारे। श्री ताराचन्द्रजी गुरुमहाराज सा. के परमभक्त 'और अनन्य श्रावक हैं । आप भी बागरा गुरुदेव के दर्शनार्थ आये । बागरा में वि० सं० १६६५ आश्विन शुक्ला ६ तदनुसार सन् १९३८ सितम्बर २६ को गुरुदेव के सदुपदेश से उन्हीं की तत्वावधानता में संस्थापित 'श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल' में उन दिनों में मैं प्रधानाध्यापक के स्थान पर कार्य कर रहा था। - आचार्य श्री के संपर्क में मैं कैसे आया और उनकी बढती हुई कृपा का भांजन कैसे बनता गया यह भी एक रहस्य भरी वस्तु है। मैं गुरुकुल की स्थापना के ११ दिवस पूर्व ही ता० १६ सितम्बर को बागरा बुला लिया गया था। इससे पूर्व मैं 'श्री नाथूलालजी गौदावत जैन गुरुकुल,' सादड़ी (मेवाड़) में गृहपति के स्थान पर २१ नवम्बर सन् १९३६ से सन् १९३८ सितम्बर १७ तक कार्य कर चुका था और वहीं से वागरा आया था । प्रधानाध्यापक के स्थान के लिये अनेक प्रार्थनापत्र आये थे । मेरा प्रार्थनापत्र स्वीकृत हुआ, उसका विशेष कारण था । गुरुकुल की कार्य-कारिणी समिति ने प्रधानाध्यापक की पसंदगी गुरुमहाराज साहब पर ही छोड़ दी थी। 'बागरा में अध्यापको की आश्यकता' शीर्षक से 'ओसवाल' में विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। विज्ञापन में प्रधानाध्यापक की योग्यता एफ. ए. अथवा बी० ए० होना चाही थी और साथही धार्मिकज्ञान भी हो तो अच्छा । मैं एफ. ए. ही था और शास्त्राध्ययन की दृष्टि से मुझको 'नमस्कारमंत्र' भी शुद्ध याद नहीं था। कई एक कारणों से मैं सादड़ी के गुरुकुल को छोड़ना चाह रहा था, मैंने उक्त विज्ञापन देखकर प्रधानाध्यापक के स्थान के लिये प्रार्थनापत्र भेज ही दिया और रेखांकित करके स्पष्ट शब्दों में लिख दिया कि अगर प्रधानाध्यापक में शास्त्रज्ञान का होना अनिवार्यतः वांच्छित ही हो तो कृपया उत्तर के लिये पोस्टकार्ड का व्यय भी नहीं करें और अगर धर्मप्रेमी प्रधानाध्यापक चाहिए तो मेरे प्रार्थनापत्र पर अवश्य विचार कर उत्तर प्रदान करें । मेरी इस स्वभाविक स्पष्टता ने आचार्य श्री को आकर्षित कर लिया। उन्होंने मुझको ही प्रधानाध्यापक के लिये चुन कर पत्र द्वारा शीघ्रातिशीघ्र बागरा पहुँचने के लिये सूचित किया । मैं रू. ३५) मासिक वेतन पर नियुक्त होकर ता० १६ सितम्बर को बागरा पहुँच गया। गुरुदेव और मेरे में परिचय कराने वाला यह दिन मेरे इतिहास में स्वर्णदिवस है । गुरुदेव की कृपा मेरे पर उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती ही रही और आज तक होती ही जा रही है । आपश्री की प्रेरणा एवं आज्ञा पर ही मैंने सर्व प्रथम श्री श्रीमद् शांति-प्रतिमा मुनिराज मोहनविजयजी का संक्षिप्त जीवन गीतिका छंदों में लिखा, जो उसी वि० सं० १६६६ (ई. सन् १९३६) में प्रकाशित हुआ । तत्पश्चात् श्रापकी ही प्रेरणा पर फिर 'जैन-जगती' नामक प्रसिद्ध पुस्तक लगभग एक सहस्र हरिगीतिका छंदों में लिखी, जो वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक ने जैन-समाज में एक नधीन हिलोर उठाई। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र ने 'जैन-जगती' में अपने दो शब्द लिखते हुये लिखा 'मैं नहीं जानता कि जैन आपस में मिलेंगे। यह जानता हूं कि नहीं मिलेंगे तो मरेंगे।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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