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________________ खण्ड :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्राज्ञा सद्गृहस्थ-सं० रत्ना-धरणा :: [ २७३ चारों दिशाओं में चार मेघमण्डप हैं, जिनको इन्द्रमण्डप भी कह सकते हैं । प्रत्येक मण्डप ऊंचाई में लगभग चालीस फीट से भी अधिक ऊँचा है । इनकी विशालता और प्रकार भारत में ही नहीं, जगत के बहुत कम स्थानों में मिल मेघ-मण्डप और उसकी सकते हैं । दो कोण-कुलिकाओं के मध्य में एक २ मेघ-मण्डप की रचना है। स्तम्भों शिल्पकला की ऊंचाई और रचना तथा मण्डपों का शिल्प की दृष्टि से कलात्मक सौन्दर्य दर्शकों को आल्हादित ही नहीं करता है, वरन् आत्मविस्मृति भी करा देता है। घण्टों निहारने पर भी दर्शक थकता नहीं है । चारों दिशाओं में मूल-देवकुलिका के चारों द्वारों के आगे मेघ-मण्डपों से जुड़े हुये चार रंगमण्डप हैं, जो विशाल एवं अत्यन्त सुन्दर हैं । मेघ-मंडपों के आंगन-भागों से रंगमण्डप कुछ प्रोत्थित चतुष्कों पर विनिर्मित हैं। पश्चिम दिशा का रंगमण्डप जो मूलनायक-देवकुलिका के पश्चिमाभिमुख द्वार के आगे रंग-मण्डप बना है, दोहरा एवं अधिक मनोहारी है । उसमें पुतलियों का प्रदर्शन कलात्मक एवं पौराणिक है। त्रैलोक्यदीपक-धरणविहारतीर्थ की मूलनायक-देवकुलिका जो चतुर्मुखी-देवकुलिका कहलाती है*, चतुष्क के ठीक बीचों-बीच में विनिर्मित है । यह तीन खण्डी है। प्रत्येक खण्ड की कुलिका के भी चार द्वार हैं जो प्रत्येक दिशा राणकपुरतीर्थ चतुर्मख-प्रासाद में खुलते हैं। प्रत्येक खण्ड में वेदिका पर चारों दिशाओं में मुंह करके श्वेतप्रस्तर की क्यों कहलाता है ? चार सपरिकर प्रतिमायें प्रतिष्ठित हैं । कुल प्रतिमाओं में से २-३के अतिरिक्त सर्व सं० धरणाशाह द्वारा वि० सं १४६८ से १५०६ तक की प्रतिष्ठित हैं। इन चतुर्मुखी खण्डों एवं प्रतिमाओं के कारण ही यह तीर्थ चतुर्मुखप्रासाद के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । इस चतुर्मुखी त्रिखण्डी युगादिदेवकुलिका का निर्माण इतना चातुर्य एवं कौशलपूर्ण है कि प्रथम खण्ड में प्रतिष्ठित मूलनायक प्रतिमाओं के दर्शन अपनी २ दिशा में के सिंहद्धारों के बाहर से चलता हुआ भी ठहर कर कोई यात्री एवं दर्शक कर सकता है तथा इसी प्रकार समुचित अन्तर एवं ऊंचाई से अन्य ऊपर के दो खण्डों में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन भी प्रत्येक प्रतिमा के सामने की दिशा में किये जा सकते हैं। इस प्रकार यह श्री धरणविहार-आदिनाथ-चतुर्मुख-जिनालय भारत के जैन-अजैन मन्दिरों में शिल्प एवं विशालता की दृष्टि से अद्वितीय है—पाठक सहज समझ सकते हैं । शिल्पकलाप्रेमियों को आश्वचर्यकारी और दर्शकों को आनन्ददायी यह मन्दिर सचमुच ही शिल्प एवं धर्म के क्षेत्रों में जाज्वल्यमान ही है, अतः इसका त्रैलोक्यदीपक नाम सार्थक ही है। टाड साहब का राणकपुरतीर्थ के विषय में लिखते समय नीचे टिप्पणी में यह लिख देना कि सं० घरणा ने इस तीर्थ की नींव डाली और चन्दा करके इसको पुरा किया-जैन-परिपाटी नहीं जानने के कारण तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा विनिर्मित कुलिकाओं,मण्डपों एवं प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को देख कर ही उन्होंने ऐसा लिख दिया है। प्रथम खण्ड की मूलनायकदेवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहिर दायी ओर एक चौड़ी पट्टी पर राणकपुर-प्रशस्ति वि० सं०१४६६ की उत्कीर्णित है । इससे यह सिद्ध होता है कि राणकपुरतीर्थ की यह देवकुलिका उपरोक्त संवत् तक बन कर तैयार हो गई थी।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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