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________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २४१ की योग्यता रख सकते थे । भिन्न संस्कृति, संस्कारवाले कुलों को मिलाने की जिस वर्ग में योग्यता है, वह वर्ग अपनी समाज के अन्य वर्गों से कैसे सामाजिक सम्बन्ध तोड़ सकता है सहज समझ में आने की वस्तु है । I जैनसमाज उस समय भी बड़ा ही प्रभावक और सम्पत्तिशाली था । भारत का व्यापार जैनसमाज के ही शाहूकारी हाथों में था । जगह २ जैनियों की दुकानें थीं। अधिकांशतर जैन घी, तेल, तिल, दाल, अन्न किराणा, सुवर्ण और चांदी, रत्न, मुक्ता, माणिक का व्यापार करते थे। कृषकों को, ठक्कुरों को, राजा, महाराजाओं को रुपया उधार देते थे । बाहर के प्रदेशों में भी इनकी दुकानें थीं । भरौंच, सूरत, बीलीमोरा, खंभातादि बन्दरों से भारत से माल के जहाज भरकर बाहर प्रदेशों को भेजे जाते थे और बाहर के देशों से सुवर्ण और चांदी तथा भांति २ के रत्न, माणिक भरकर भारत में लाते थे। बड़े २ धनी समुद्री बंदरों पर रहते थे और वहीं से बाहर के देशों से व्यापार करते थे । खंभात, प्रभासपत्तन और भरौंच नगरों के वर्णन जैन ग्रन्थों में कई स्थलों पर मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि भारत के व्यापारिक केन्द्रनगरों में जैनियों की बड़ी २ बस्तियाँ थीं और उनका सर्वोपरि प्रभाव रहता था । वे सम्पत्तिशाली होने पर भी सादे रहते थे और साधारण मूल्य के वस्त्र पहिनते थे । अर्थ यह है कि वे बड़े मितव्ययी होते थे | स्त्री और पुरुष गृह के सर्वकार्य अपने हाथों से करते थे । संपत्ति और मान का उनको तनिक भी अभिमान नहीं था । उनकी वेष-भूषा देखकर कोई बुद्धिमान् भी यह नहीं कह सकता था कि उनके पास में लक्षों एवं कोटियों की सम्पत्ति हैं । जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि जब कोई संघ निर्दिष्ट तीर्थ पर पहुँचकर संघपति को संघमाला पहिनाने का उत्सव मनाता था, उस समय अकिंचन - सा प्रतीत होता हुआ कोई श्रावक माला की ऊंची से ऊंची बोली बोलता हुआ सुना एवं पढ़ा गया है । एकत्रित संघ को उसकी मुखाकृति एवं वेष-भूषा से विश्वास ही नहीं होता था कि वह इतनी बड़ी बोली की रकम कैसे दे देगा। जब उसके घर पर जा कर देखा जाता था तो आश्चर्य से अधिक धन वहाँ एकत्रित पाया जाता था । गूर्जरसम्राट् कुमारपाल जब संघ निकाल कर शत्रुंजयतीर्थ पर पहुँचे थे, माला की बोली के समय प्राग्वाटज्ञातीय जगड़ शाह ने सवा कोटि की बोली बोल कर माला धारण की थी । काल, दुष्काल के समय भी एक ही व्यक्ति कई वर्षों का अन्न अपने प्रान्त की प्रजा के पोषण के लिये देने की शक्ति रखता था । ऐसे वे धनी थे, ऐसा उनका साधारण रहन-सहन था और ऐसे थे उनके धर्म, देश, समाज के प्रति श्रद्धापूर्ण भाव और भक्ति । अपने असंख्य द्रव्य और अखूट अन्न को व्यय करके जैन समाज में जो अनेक शाह हो गये हैं, उनमें से अधिक इन्हीं वर्षों में हुये हैं, जिन्होंने दुष्कालों में, संकट में देश और ज्ञाति की महान् से महान् सेवायें की हैं और शाहपद की शोभा को अक्षुण्ण बनाये रक्खा है। I अपने धर्म के पर्वों पर और त्यौहारों पर अपनी शक्ति के योग्य दान, पुण्य, तप, धर्माराधना करने में पीछे नहीं रहते थे । बड़े २ उत्सव - महोत्सव मनाते थे, जिनमें सर्व प्रजा सम्मिलित होती थी । जितने बड़े २ तीर्थ आज विद्यमान हैं, जिनकी शोभा, विशालता, शिल्पकला दुनिया के श्रीमंतों को, शिल्पविज्ञों को आश्चर्य में डाल देती . हैं; इनमें से अधिकांश तीर्थों में बने बड़े २ विशाल जिनालयों का निर्माण, जिनमें एक २ व्यक्ति ने कई कोटि द्रव्य - व्यय किया है उन्हीं शताब्दियों में हुआ हैं । ये बड़े २ संघ निकालते थे और स्वामीवत्सल ( प्रीतिभोज) करते थे, जिनमें सैंकड़ों कोसों दूर के नगर, ग्रामों से बड़े २ संघ निमंत्रित होकर आते थे। ये संघ कई दिनों तक - ठहराये जाते थे । पहिरामणियों में कई सेर मोदक और कभी २ मोदक के लड्दुओं में एक या दो स्वर्णमुद्रायें रखकर
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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