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________________ खण्ड ] :: सिंहावलोकन :: [ २३६ प्रथम तीन शताब्दियों में बड़ा ही सफल रहा और फिर पुनः यवनों के प्रबल आक्रमणों के कारण जैनाचार्यों का इस और स्वभावतः ध्यान और श्रम कम लगने लगा । यवनों को सम्पूर्ण उत्तरी भारत भय की दृष्टि से देखने लगा, अतः जैन और वेदमतों में परस्पर छिड़ा हुआ द्वन्द्व तृतीय शत्रु को द्वार पर आया हुआ देखकर स्वभावतः समाप्तप्रायः हो गया । फिर भी जैन से जैन और जैन से जैन चौदहवीं शताब्दी पर्यन्त कुछ २ संख्याओं में बनते रहे । धार्मिक जीवन आज गिरती स्थिति में भी जैनसमाज अपनी धार्मिकता के लिये अधिक विश्रुत है यह प्रत्येक बुद्धिमान् मनुष्य जानता है । जैन साधु अपने धार्मिक जीवन के लिये सदा दुनिया के सर्व पंथों, मतों, धर्मों के साधुओं में प्रथम ही नहीं, त्याग, संयम, आचार, विचार, वेष भूषा, भाषण, विहार, आहार, तपस्यादि में अग्रगण्य और अति सम्मानित समझे जाते रहे हैं । वे अन्यमती साधुओं की भांति छल नहीं करते थे, किसी को धोखा नहीं देते थे और कंचन और कामिनी के आज भी वैसे ही त्यागी हैं । जैन श्रावक भी इस ही प्रकार सच्चाई, विश्वास, नेकनियत, धर्मश्रद्धा, दया, परोपकारादि के लिये सदा प्रसिद्ध रहा है। जैन श्रमणसंस्था में साधु, उपाध्याय और आचार्य इस प्रकार गुणभेद से तीन प्रकार के मुनि रक्खे गये हैं । ये संसार के त्यागी हैं फिर भी नगरों, ग्रामों में विहार करके धर्मप्रचारादि कार्य करने का इनका कर्त्तव्य निश्चित किया गया हैं। ये धर्म के पोषक और प्रचारक समझे जाते हैं और उस ही प्रकार युग की प्रकृति पहिचान करके ये धर्म की रक्षा करते हैं तथा उसकी उन्नति करने का अहिर्निश ध्यान करते रहते हैं । प्राग्वाटज्ञाति में अनेक ऐसे महातेजस्वी साधु गये हैं, जिन्होंने अल्पायु में ही संसार का त्याग करके जैनधर्म की महान् सेवायें की हैं। ऐसे साधुओं में विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुये सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि, बारहवीं शताब्दी में हुये महाप्रभावक श्रीमद् आर्यरक्षितभूरि एवं बृहद् तपगच्छाधिपति राजराजेश्वर संमान्य श्रीमद् वादि देवसूरि, अंचलगच्छीय श्रीमद् धर्मघोषसूरि आदि प्रमुखतः हो गये हैं। प्राचीन जैनाचार्यों में ये श्राचार्य महान् गिने जाते हैं । उक्त श्राचार्यों के तेज से जैनशासन की महान् कीर्त्ति बढ़ी है। इनका सत्य, शील, साध्वाचार आर्दशता की चरमता को पहुँच चुका था । वैष्णव राजा, वेदमतानुयायी ब्राह्मण-पंडित भी उक्त आचार्यों का भारी सम्मान करते थे । गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह की राज्यसभा में हुये वाद में जय प्राप्त करके श्रीमद् वादि देवसूरि ने प्राग्वाटज्ञाति की कुक्षी का महान् गौरव बढ़ाया है। 1 श्रावकों में नत्र सौ जीर्स जैनमन्दिरों का समुद्धारकर्ता प्राग्वाटज्ञातिकुलकमलदिवाकर महामंत्री सामंत, महात्मा वीर, गूर्जरमहाबलाधिकारी दंडनायक विमलशाह, गूर्जरमहामात्य वस्तुपाल, महाबलाधिकारी दंडनायक तेजपाल, जिनेश्वरभक्त पृथ्वीपाल, नाडोलनिवासी महामात्य सुकर्मा एवं नाडोलनिवासी महान यशस्वी श्रे० पूर्ति और शालिग आदि अनेक धर्मात्मा महापुरुष हो गये हैं। सच कहा जाय तो विक्रम की इन शताब्दियों में गूर्जर एवं राजस्थान में जैनधर्म की जो प्रगति रही है और उसका जो स्वर्णोपम गौरव रहा है वह सब इन धर्म के महान् सेवकों के कारण ही समझना चाहिए। इन महापुरुषों ने धर्म के नाम पर अपना सर्वस्व अर्पण किया था । अर्बुद और गिरनारतीर्थों के शिल्प के महान् उदाहरण स्वरूप जैनमंदिर मं० विमल, वस्तुपाल, तेजपाल की कीर्त्ति को आज भी अक्षुण्ण बनाये हुये हैं । ये ऐसे धर्मात्मा थे कि अकारण कृमि तक को भी कष्ट नहीं पहुँचाते थे । ये पुरुष महान् शीलवंत, देश और धर्म के पुजारी, साहित्यसेवी, तीर्थोद्धारक और बड़े २ संघों के निकालने वाले हो
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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