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________________ २१८] :: प्राग्वाट-इतिहास:: [द्वितीय की राज्य सभा के प्रसिद्ध विद्वानों में प्राग्वाटवंशावतंस श्रीलक्ष्मणपुत्र श्रीमंत श्रीपाल महाकवि भी था, जो सम्राट के विद्-मण्डल का प्रधान सभ्य एवं सभापति था। स्वयं सम्राट का यह बाल-मित्र था और सम्राट इसको 'भ्राता' कह कर सम्बोधित करते थे । इसकी प्रखर कवित्व-शक्ति से मुग्ध होकर ही सम्राट ने महाकवि श्रीपाल को कविराज अर्थात् कविचक्रवर्ती जैसी उच्च पदवी से विभूषित किया था। श्रीपाल पर सरस्वती एवं लक्ष्मी दोनों परस्पर विरोधी देवियों की एक-सी अपार प्रीति थी, जो अन्यत्र किसी युग में बहुत कम सरस्वती के भक्तों पर देखने में आई है। श्रीपाल का जैसा विद्वानों एवं सम्राट की राज्व-सभा में मान था, समाज में भी वैसा ही सम्मान था। पत्तन का श्रीसंघ उस समय महान् यशस्वी एवं प्रतापवंत था । यह महाकवि ऐसे पत्तन के श्रीसंघ का प्रमुख नेता था। वादी देवसरि और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य का यह परमभक्त था और उनकी भी इसके प्रति अपार प्रीति ही नहीं, आदर-दृष्टि थी । सम्राट् साहित्यसम्बन्धी कोई कार्य महाकवि श्रीपाल की सम्मति बिना वहीं करता था । बाहर से आने वाले विद्वानों का सम्राट की ओर से आदर-सत्कार करने का उत्तरदायित्व श्रीपाल १-यशचन्द्रकृत 'मुद्रित कुमुदचन्द्रनाटक' में गुजरेश्वर की राजपरिषद का वर्णन देखिये। २-'प्रभाचन्द्रसरिकृत 'श्री प्रभावकचरित्र' में देखो 'श्री देवस रिचरित्र' और 'हेमसरिचरित्र । २-'अये कथं सिद्धभूपालबालमित्र, सूत्रंसकवितायाः कविराजविरुदकमलनाल, श्रीपालमालोकयाम: ?। मुद्रितकुमुदचन्द्रप्रकरणम् पृ८ ३६ ४-अर्बुदाचलस्थ विमलवसति के रंग-मण्डप के एक स्तंभ पर एक मूर्ति का आकार बना हुआ है। इस मूर्ति के नीचे च्या१० पंक्तियों में एक लेख उत्कीर्णित है। जिसमें श्रीपाल कवि का वर्णन है। लेख की केवल चार पंक्तियां ही पढ़ने में आ सकी है। 'प्राग्वाटान्वयवंशमौक्तिकमणः श्रीलक्ष्म (*)णस्मात्मजः, श्रीश्रीपाल कवीन्द्रबन्धुरमलश्चा (*) शालतामण्डपः । श्रीनाभेयजिनाहिपद्मम (*) धुपस्त्यागाद्भुतैः शोभितः श्रीमान् शोभित (*) एष सद्यविभवः (१) स्वरणोंकमासे दिवान्' ।।१।। ..... . प्रा० जै० ले० सं० ले०२७१. उक्त श्लोक के आधार पर और इसके विमलवसति में होने के कारण मु०श्री जिनविजयजी 'द्रौपदी-स्वयंवरम्' नामक नाटक की प्रस्तावना के पृ० २२ पर श्रीपाल को विमलशाह के वंशज होने की संभावना भी करते हैं, परन्तु मेरे निकट यह इतने पर से तो अमान्य है। -'प्राग्वाटान्वयसागरेन्दुरसमप्रज्ञः कृतज्ञः क्षमी, वाग्मी सक्तिसुधानिधानमजनि श्रीपाल नामापुमान् । यं लोकोत्तरकाव्यरंजितमतिः साहित्य विद्यारतिः, श्री सिद्धाधिपतिः कवीन्द्र इति च भ्राते ति च व्याहरत्॥ सोमप्रभसूरि कृत 'श्री सुमतिनाथचरित्र' एवं 'कुमारपाल-प्रतिबोध' ग्रंथों के अन्त में दी गई प्रशस्तियों में।... ६-वादी देवसरि के गुरुभ्राता श्राचार्य विजयसिंह के शिष्य हेमचन्द्र ने 'नाभेय-नेमि-द्विसन्धान' एक प्रबन्धकाम्य लिखा है। उसके अन्तिम पद्य से ऐसा प्रतीत होता है कि उस ग्रन्थ का संशोधन श्रीपाल ने किया था। उस पद्य में श्रीपाल को 'कविचक्रवत्ती एवं 'प्रतिपन्नबन्धु' के विशेषणों से स्पष्ट अलंकृत किया गया है। 'एकाहनिष्पन्चमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती सुधीरिमं शोधितवान् प्रबन्धम् ।। जनहितैषी, भाग १२, सं०६.१० सिक्किमक्तावली और सोमप्रभाचार्य' नामक जिनविजयजी का लेख] ७-'एकाहनि [प] नमहाप्र-धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः। श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती प्रशस्तिमंतामकरोत्प्रशस्ताम् ॥३०॥ H. I. G. pit. 1 [बड़नगर-प्रशस्ति] No. 147 १. 'द्रौपदीस्वयंवरम्' की प्रस्तावना में मुनि जिनविजयजी ने श्रीपाल के मान एवं गौरव के उपर अच्छा लिखा है, पढ़ने योग्य है। २. 'प्रभावक-चरित्र में हेमचन्द्र-प्रबन्ध में श्लोक १८२-२०६ देखिये।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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