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________________ खण्ड] : श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहद्गच्छीय श्री धर्मघोषसूरि :: [२१५ सामंत ने उप-प्राचार्य श्री की कीर्ति जब सुनी, वह राणी सहित गुरु और उपाध्याय महाराज के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ। दोनों ने गुरुमहाराज और उपाध्याय श्री को भक्ति-भाव से वंदन किया। गुरु का उपदेश श्रवण करके सामंत ने शिकार नहीं खेलने की, मांस और मदिरा सेवन नहीं करने की प्रतिज्ञा ली और जैन-धर्म अंगीकृत किया । गुरु श्रीमद् जयसिंहरि ने उपाध्याय धर्मघोषमुनि को सर्व प्रकार से योग्य जान कर शाकंभरी में ही आचार्य-पद देने का विचार किया। वि० सं० १२३४ में उपाध्याय श्री को आचार्य-पद महामहोत्सवपूर्वक प्रदान किया गया। इस महोत्सव में सामंत प्रथमराज ने भी एक सहस्र स्वर्ण-मुद्रायें व्यय की थीं। __ श्रीमद् जयसिंहसूरि ने प्राचार्य धर्मघोषसरि को सब प्रकार से योग्य और समर्थ समझ कर अलग विहार करने की आज्ञा देदी । आचार्य धर्मघोषसरि ग्राम-ग्राम और नगरों में भ्रमण और चातुर्मास करके जैनधर्म की आचार्य धर्मघोषसृरि का प्रतिष्ठा और गौरव को बढ़ाने लगे। आपकी अद्भुत मंत्र एवं विद्याशक्ति से लोग विहार और धर्म की उन्नति आपके प्रति अधिक आकर्षित होकर आपकी धर्मदेशना का लाभ लेने लगे। आपने अनेक स्थलों में जैन बनाये और अहिंसामय जैन-धर्म का प्रचार किया। वि० सं० १२६८ में श्रीमद् जयसिंहसूरि द्वारा पारकर-प्रदेशान्तर्गत पीलुड़ा ग्राम में प्रतिबोधित लालणजी ठाकुर द्वारा निमंत्रित होकर श्रीमद् आचार्य धर्मघोषसरिजी ने चातुर्मास डोणग्राम में किया। प्राचार्य अपना डोणग्राम में चातुर्मास और उनसठ वर्ष का आयु पूर्ण करके डोणग्राम में स्वर्ग को पधारे । आपके पट्ट पर स्वर्गवास .. श्रीमद् महेन्द्रसूरि विराजमान हुये । धर्मघोषसरि महाप्रभावक आचार्य हुये हैं । वि० सं० १२६३ में इनका बनाया हुआ 'शतपदी' नामक ग्रंथ अति प्रसिद्ध ग्रंथ है। ये प्रसिद्ध वादी भी थे । दिगम्बराचार्य वीरचन्द्रसूरि ने इनसे परास्त होकर खेताम्बरमत स्वीकार किया था । 'धर्मघोष' नाम के अनेक आचार्य भिच्च २ गच्छों में हो गये हैं। एक ही नाम के प्राचार्यों के वृत्तों के पठन-पाठन में पाठकों. को भ्रम हो जाना अति सम्भव है । सुविधा की दृष्टि से उनके नाम संवत्-क्रम से और गच्छवार नीचे लिख देना ठीक समझता हूँ। जै० सा० सं० इति के आधार पर:१. पिप्पलगच्छसंस्थापक शांतिस रिपट्टधर विजयसिंह-देवभद्र-धर्मघोष । इस गच्छ की स्थापना विक्रमी शताब्दी बारह के उत्तरार्ध में हुई। टि० २६६. २. वि० सं०१२५४में जालिहटगच्छ के [बालचन्द्र-गुणभद्र-सर्वानंद-धर्मघोषशिष्य देवसरि ने प्राकृत में पद्मप्रभसरिकी रचना की ४६२ ३. वि० सं०१२६० में बड़गच्छीय (सर्वदेवसू रि-जयसिंह-चन्द्रप्रभ-धर्मघोष-शीलगुणसरि-मानतुंगसरि शि०) मलयप्रम ने 'सिद्ध___ जयंती' पर वृत्ति रची।४६४ ४. वि० सं० १२६१ में चन्द्रगच्छीय चंद्रप्रभसरि-धर्मघोष-चन्द्रेश्वर-शिवप्रभसूरिशिष्य तिलकाचार्य ने 'प्रत्येकबुध-चरित्र' लिखा ४६५ ५. सं०१३२० के आसपास तपागच्छीय धर्मघोषसरि के सदुपदेश से अवन्तीवासी उपकेशज्ञातीय शाह देद पुत्र पेथड़ ने ८० स्थानों में जिनमदिर बनवाये । ५८०, ५८१
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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