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________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु-बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि :: [ २०१ श्रे० कोड़ी कोषाध्यक्ष के मुंह से आर्यरक्षितसूरि की प्रशंसा श्रवण करके सम्राट सिद्धराज ने आचार्यजी को पत्तन में पधारने का बाहड़ मंत्री को भेजकर विनयपूर्वक निमंत्रण भेना । निमन्त्रण पाकर आचार्य अपने साधु परिवार सहित पत्तन में पधारे। सम्राट ने राजसी ठाट-बाट से महाप्रभावक आचार्य पत्तन में प्राचार्यजी " का नगर-प्रवेश-महोत्सव करवाया और सम्राट ने उनका सभा में मानपूर्वक पदार्पण करवा कर भारी सम्मान किया। आचार्य आर्यरक्षितम्ररि महाप्रभावक आचार्य हो गये हैं, जैसा ऊपर के वर्णन से ज्ञात होता है । आपने कई अजैन कुलों को जैन बनाया और अपने करकमलों से लगभग एक सौ साधुओं और ग्यारह सौ साध्वियों को दीक्षित किया। वीश साधुओं को उपाध्यायपद, सत्तर साधुओं को पंडितपद, स्वर्गारोहण एक सौ तीन साध्वियों को महत्तरापद, ब्यासी साध्वियों को प्रवर्तिनीपद प्रदान किये। इस प्रकार धर्म की प्रभावना बढ़ाते हुए वि० सं० १२३६ (१२२६) में पावागढ़तीर्थ में सात दिवस का अनशन करके सौ वर्ष की दीर्घायु भोग कर आप स्वर्ग को पधारे । १ बृहत्तपगच्छीय सौवीरपायी श्रीमद् वादी देवसूरि दीक्षा वि० सं० ११५२. स्वर्गवास वि० सं० १२२६ गूर्जरभूमि के अन्तर्गत अष्टादशशती नामक मण्डल (प्रान्त) में मद्दाहृतः नामक नगर में परोपकारी सुश्रावक वीरनाग रहता था। यह प्राग्वाटज्ञाति में अपनी सवृत्ति के कारण अधिक संमान्य था। इसकी स्त्री का नाम जिनदेवी था। जिनदेवी अपने नाम के अनुरूप ही जिनेश्वर भगवान् में अनुरक्ता एवं वंश-परिचय पतिपरायणा साध्वी स्त्री थी। तपगच्छीय श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि के ये परम भक्त थे। पूर्णचन्द्र नामक इनके पुत्र था, जिसका जन्म वि० सं ११४३ में हुआ था। यह प्रखर बुद्धि, तेजस्वी एवं मोहक मुखाकृति वाला था। वीरनाग अपनी गुणवती स्त्री एवं तेजस्वी बालक के साथ सानन्द गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे। एक समय मद्दाहृत नगर में भारी उपद्रव उत्पन्न हुआ और समस्त नगरनिवासी नगर छोड़कर अन्यत्र चले गये । सुश्रावक वीरनाग को भी वहाँ से जाना पड़ा। वह अपनी स्त्री और पुत्र पूर्णचन्द्र को लेकर भगुकच्छ नगर में पहुँचा । भृगुकच्छ के श्रीसंघ ने उसका समादर किया और वह वहीं रहने लगा। इतने में उसके गुरु श्रीमद् मुनिचन्द्रसूरि भी भृगुकच्छनगर में पधारे। उस समय तक पूर्णचन्द्र आठ वर्ष का हो गया था। प्राचार्य पूर्णचन्द्र को देखकर अति मुग्ध हुये और उसकी बाल-चेष्टायें, क्रियायें देखकर उनको विश्वास हो गया कि यह बालक आगे जाकर अत्यन्त प्रभावक पुरुष होगा। योग्य अवसर देखकर आचार्य ने वीरनाग से पूर्णचन्द्र की १-म०प० (गुजराती) ॥४७॥ पृ०१२०-१४४ २- सौवीरपायर्याति तदेकवारिपानाद विधिज्ञो विरुदै बभार' ।६६॥ गुर्वावली पृ०७ (संस्कृत) ३-महाहत नगर का वर्तमान नाम महा है। यह नगर अर्बुदगिरि के सामीप्य में विद्यमान है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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