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________________ खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्म संबंधी सेवायें :: [१५३ साहित्य-विभाग और महामात्य के नवरत्न __ यह विभाग महामात्य ने विद्वत्सभा बनाकर संस्थापित किया था, जिसके अध्यक्ष महाकवि सोमेश्वर थे। पं० हरिहर, महाकवि नानाक, मदन, सुभट, पाल्हण, जान्हण, प्रसिद्ध शिल्पशास्त्री शोभन और महाकवि अरिसिंह नाम के सुप्रसिद्ध नव विद्वान् थे । ये सर्व विद्वान् एवं कवि लघुभोजराज वस्तुपाल के नवरत्न कहलाते थे । जैन कवि और प्रखर विद्वान् आचार्य-साधु जैसे विजयसेनमूरि, अमरचन्द्रसूरि, उदयप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसरि जयसिंहमूरि, बालचन्द्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि आदि अनेक विद्वान् साधु इस सभा से सम्बन्धित थे। इनमें से प्रत्येक ने अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ लिखकर साहित्य की वह सेवा की है, जो धारानरेश भोज के समय में की गई साहित्य की सेवा से प्रतियोगिता करती है। महामात्य वस्तुपाल स्वयं महाकवि था और उसने भी संस्कृत के कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। महामात्य विद्वानों, पंडितों का बड़ा समादर करता था। उसने अपने जीवन में लक्षों रुपये विद्वानों को पारितोषिक रूप में दिये । वह अनेक विद्वानों को भोजन, वस्त्र और अनेक बहुमूल्य वस्तुयें दान करता था । महामात्य को इसीलिये 'लघुभोजराज' कहते हैं। इस विभाग की देख-रेख में ५०० पाँच सौ लेखकशालायें प्रमुख २ नगरों में चल रही थीं। ये लेखक नवीन ग्रन्थ लिखते और अनेक विषयों के प्राचीन जैन, जेनेतर ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करते, संस्कृत में, प्राकृत में भाषा-टीका करते और अनुवाद करते थे। हर एक ग्रन्थ की तीन प्रतियाँ तैयार की जाती थीं, जो खम्भात, पत्तन, भृगुपुर के बृहद् ज्ञानभण्डारों में एक २ भेजी जाती थीं और वहाँ पर अत्यन्त सुरक्षित रक्खी जाती थीं । इस विभाग की तत्त्वावधानता में १८०००००००) अट्ठारह कोटि रुपया महामात्य ने व्यय किया था। प्रथम रत्न महाकवि सोमेश्वर थे। राजगुरु भी ये ही थे। पत्तन और धवलकपुर की राज्यसभाओं में इनका पूरा पूरा मान था । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद, राणक वीरधवल, महामात्य वस्तुपाल इनको बिना पूछे और इनकी बिना सम्मति लिये कोई महत्व का कदम नहीं उठाते थे। महामात्य के ये सहपाठी सोमेश्वर ___ होने के नाते अधिक प्रिय मित्र थे। राजा और अमात्यों के बीच की ये कड़ी थे। वस्तुपाल तेजपाल को महामात्यपदों पर आरूढ़ कराने में इनका अधिक हाथ था। सारे जीवन भर थे महामात्य के सुख-दुःख के साथी रहे। ये महाराणक वीरधवल और मण्डलेश्वर लवणप्रसाद से भी अधिक दोनों मन्त्री भ्राताओं का मान करते थे। महामात्य भी इनका वैसा ही सम्मान करता था । सोमेश्वर अपनी विद्वत्ता के लिये भारत में दूर २ तक प्रसिद्ध थे । एक दिन महाराणक वीरधवल की राजसभा में गौड़देश से पं० हरिहर आया । पं० हरिहर सोमेश्वर का गौरव सहन नहीं कर सका और उसने इनकी बनाई हुई वीरनारायण नामक प्रासाद विषयक १०८ श्लोकों की प्रशस्ति को चुराई हुई वस्तु कह कर भरी सभा में इनका बड़ा अपमान किया। पं० हरिहर ने जब उक्त प्रशस्ति को कंठपाठ कर सुना दिया, तब तो सच्चा महाकवि सोमेश्वर बहुत ही लज्जित हुआ। परन्तु महामात्य वस्तुपाल को सोमेश्वर जैसे महाकवि के चोर होने की बात नहीं अँची। हरिहरकृत एक अभिनव कृत्ति की महामात्य ने दूसरे दिन ताबड़तोड़ एक प्राचीन-सी प्रतिलिपि करवाई और उसको खंभात के ज्ञानभंडार पु० प्र०सं०व० ते० प्र०१३६) पृ०६५
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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