SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ :: प्राग्बाट-इतिहास:: [द्वितीय तेजपाल को अर्पित की और भरी राजसभा में महामात्य वस्तुपाल का पितातुल्य सम्मान और अर्चन किया और अपने सामन्तों, उच्च राज्यकर्मचारियों और प्रसिद्ध सुभट तथा योद्धाओं तथा राज्य के पंडितों और श्रीमन्तों के सहित वह महामात्य को उसके घर तक पहुँचाने गया। राणक वीरधवल के साम्राज्य का विस्तार, भीतरी एवं बाहरी शत्रुओं के भय का नाश एक मात्र महामात्य वस्तुपाल और दंडनायक तेजपाल के बुद्धि, बल एवं कुशलता से हो सका था । स्वयं वीशलदेव जो राज्यसिंहासन का अधिकारी न होते हुए भी सिंहासनारूढ़ हो सका था यह भी प्रताप मन्त्री माताओं का था । परन्तु वीशलदेव अनुभवहीन होने के कारण मन्त्री भ्राताओं के वैभव और तेज-प्रताप को देखकर मन ही मन कुढ़ने लगा। मन्त्री भ्राताओं के दुश्मनों एवं निंदकों को अब अच्छा समय मिला और वे इन मंत्री-भ्राताओं के विषय में अनेक झूठी-सच्ची बातें बनाकर वीशलदेव को इन पर अधिक कुपित करने लगे। वि० सं० १२६६ के प्रारंभ में एक दिन वीशलदेव ने दंडनायक तेजपाल को राज्यमुद्रा अपने मित्र नागड़ को अर्पण कर देने की आज्ञा दी। महामात्य वस्तुपाल ने सहर्ष राज्यमुद्रा अर्पण करवा दी। राणक वीशल देव ने महामात्य वस्तुपाल को श्रीकरण के पद से हटाकर लघुश्रीकरण का पद दिया । समयज्ञ एवं अनुभवशील चतुर मन्त्री भ्राताओं ने यह अपमान सहन कर लिया। महाकवि सोमेश्वर, मण्डलेश्वर लवणप्रसाद ऐसे परम उपकारी देशभक्त, धर्मवीर, रणवीर मन्त्री भ्राताओं का यह अपमान देखकर अत्यन्त दुःखी हुए। वे भी अब वृद्ध हो चुके थे और स्वयं मन्त्री भ्राता भी अब वृद्ध हो चुके थे और थोड़े समय में तो अवकाश ग्रहण करने वाले ही थे, इसके अतिरिक्त सिंहासन का सन्चा अधिकारी वीरमदेव भी स्वर्ग को पहुँच चुका था, ऐसी स्थिति में उन्होंने हठाग्रही और कुविचारी वीशलदेव को हितोपदेश देने में लाभ के स्थान में हानि ही होती सोची और श्रतः चुप रह गये। रा०मा० भा०२ पृ० ४८६ राज्ञा पूर्वप्रीत्या [वृद्धनगरीय नागड़नामा विप्रः प्रधानीकृतः । मन्त्रिणः पुनर्लघुश्रीकरणमात्रं दत्तम् । प्र० को० ३०प्र०१५१) पृ० १२५ वीशलदेव का समराक नामक प्रतिहार था । यह महामात्य वस्तुपाल द्वारा किसी अपराध के कारण पहिले दण्डित हो चुका था। वीशलदेव का यह कृपापात्र हो चला था । अब इसने प्रतिशोध लेने का यह अच्छा अवसर समझा । इसने निर्बुद्धि वीशलदेव के मन में यह बात गहरी जमा दी कि मन्त्री भ्राताओं के पास जो अतुल वैभव और धन-सम्पत्ति है वह सब राज्य की है और इन्होंने धर्मस्थानों 1 में, तीर्थों में, नगर, पुर, ग्रामों में जो धन व्यय किया है, वह सब भी राज्य का ही धन था । राज्यकोष भी अब वैसा समृद्ध नहीं रह गया था, जैसा राणक वीरधवल के समय में था । मन्त्री भ्राताओं के पदों में अवनति करने के पश्चात् राज्यकोष में बाहर से आने वाली श्राय भी कम पड़ गई थी। राणक वीरधवल की पुण्यस्मृति में मन्त्री भ्राताओं ने वीशलदेव के आदेश से वीशलपुर नामक नगर अति धन व्यय करके बसाया था । अनेक मन्दिर बनवाये गये थे। इनमें ब्रह्माजी का मन्दिर अत्यन्त धन व्यय करके बनवाया गया था और वह कला की दृष्टि से अधिक प्रसिद्ध था। यह नगर हर प्रकार से समृद्ध एवं वैभवशाली बनाया गया था। इस नगर के वसाने में राज्यकोष का बहुत द्रव्य लगा था। इस नगर के वस जाने के थोड़े दिनों पश्चात् ही वीशलदेव ने मन्त्री भ्राताओं का अपमान करना प्रारंभ कर दिया और राज्यमुद्रा भी छीन ली। अतः वह रिक्त हुआ राज्यकोष पुनः समृद्ध नहीं हो सका। दुर्बुद्धि वीशलदेव ने मन्त्री भ्राताओं पर राज्यद्रव्य खाने का अपराध लगा कर उनके अगणित द्रव्य को छीन कर रिक्त होते जाते राज्यकोष को भरने का समराक की बातों में श्राकर अनुचित विचार किया। रा० मा० भाः २ पृ० ४८७ "निजनाम्ना निवेश्योा , नगरं मन्त्रिणा नवं । श्री वीसलनृपोऽनेकधर्मस्थानमनोहरम् ॥४७॥ व०च०१०प्र० पृ० १२८ 'एकसमराकनामा प्रतिहारो.................देव । अनयोः पार्वेऽनन्तधनमस्ति तदाच्यताम् । प्र०को० १५१) पृ० १२५ राणक वीशलदेव ने एक दिन दोनों मंत्री भ्राताओं को आज्ञा दी कि वे अपना समस्त धन लेकर राजसभा में उपस्थित होवें। मंत्री भ्राताओं ने कहा कि उनके पास जितना द्रव्य संचित हुआ था वह अधिकांश में शत्रुञ्जयादि तीर्थों में व्यय किया जा चुका है। राजा ने हठ पकड़ ली और अंत में जब मंत्री भ्राता राजा की उक्त आज्ञा पालने में तत्पर होते नहीं दिखाई दिये तो राजा ने दुष्ट राजसमासदों की बातों में आकर एक घट में काला सर्प रखवाया और उस सर्प को घट में से निकाल कर सत्यता का परिचय देने के लिये मंत्री माताओं से कहा । मण्डलेश्वर लवणप्रसाद ने वीशलदेव को बहुत समझाया, परन्तु वह निर्बुद्धि राजा नहीं माना | अंत में ज्योहि महामात्य वस्तुपाल राजसभा के मध्य में रक्खे हुए घट में से सर्प निकालने को उठा महाकवि सोमेश्वर जो अब तक वीशलदेव की मूर्खता को देखकर मन में कुढ़ रहे थे और सोच रहे थे कि ऐसे राजाधम शासक को क्यों न सिंहासन से च्युत कर दिया जाय जो गूर्जरभूमि के एकमात्र सुपुत्र, परम भक्त, महाधार्मिक, सर्वगुणसम्पन, अजेय योद्धा पर राज्यमद में आकर अत्याचार करने पर उतार हो रहा है, उठे निवेश्योग रा० मा० भाद्रव्य को ही
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy