SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड] :: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य महात्मा वीर :: एक चिंतारूप ज्वर मुझको रात-दिन पीड़ित करता रहता है। महात्मा वीर ने राजा की चिंता के कारण को वीरसूरिजी के समक्ष निवेदन किया । सूरिजी महाराज ने वीर मन्त्री को अभिमन्त्रित वासक्षेप प्रदान किया और कहा कि इसको राणी के मस्तिष्क पर डालने से राजा को यथावसर पुत्र की प्राप्ति होगी। यथावसर राजा को वल्लभराज एवं दुर्लभराज दो पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हुई। सम्राट चामुण्डराज महात्मा वीर का आयु भर आभार मानता रहा और उसके पश्चात् उसके दोनों पुत्रों ने भी महात्मा वीर का मान अक्षुण्ण बनाये रक्खा । वीर की स्त्री का नाम वीरमति था । वीरमति की कुक्षी से नेढ़ और विमल नामक दो महामति एवं पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुये । वीर जैसा योग्य महामात्य था, शूरवीर योद्धा था, वैसा ही उत्तम कोटि का श्रावक एवं धर्मवीर वीर की स्त्री और उसके पुत्र था। उसने अपनी अन्तिम अवस्था में समस्त सांसारिक वैभव, अतुल सम्पत्ति, प्रिय नेढ़ और विमल स्त्री, पुत्र, कलत्र, महामात्यपद को छोड़कर चारित्र (साधुपन) ग्रहण किया और इस प्रकार परलोकसाधन करता हुआ वि० सं० १०८५ में स्वर्गवासी हुआ ।४ उसके दोनों पुत्र नेढ़ और विमल उसकी १-राडेरकगच्छीय चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य प्रभाचन्द्रसूरि ने वि० सं०१३३४ में 'प्रभावकचरित्र' नामक एक अमूल्य ग्रंथ की रचना की है । उक्त ग्रंथ में १५वा वीरसरि-प्रबन्ध है । इस प्रबन्ध में उक्त घटना का वर्णन है। घटना सच्ची प्रतीत होती है, परन्तु पीरगणी का समय ग्रंथकर्ता ने इस प्रकार लिखा है, जो मिथ्या है। ___ जन्म-२०६३८ दीक्षा-२०६८० निर्वाण स-६६१। सम्राट् चामुण्डराज का शासनकाल वि. सं०१०५३-६६, इन शासन-संवतों से तो यही प्रतीत होता है कि तब " वल्लभराज का , १०६६-६६३ दशवीं शताब्दी में उत्पन्न वीरसरि और कोई दूसरे प्राचार्य , दुलेभराज का " " १०६१३-७७ J होंगे। इस नाम के अनेक आचार्य हो गये हैं। या ग्रंथकर्ता ने भूल से अन्य इसी नाम के प्राचार्य का काल उक्त आचार्य का निर्देश कर दिया है। २-श्रीमन्नेढो धीधनो धीरचेता बासीन्मंत्री जैनधर्मकनिष्ठः। आद्यः पुत्रस्तस्य मानी महेच्छ: त्यागी भोगी बंदुपद्माकरेन्दुः॥६॥ द्वितीय को द्वैतमतावलंबी दण्डाधिपः श्री विमलो बभूव ।..... ............."||७|| अ० प्रा० ० ले० सं० भा० २ लेखांक ५१ (विमलवसतिगत लेख) वीरकुमर गेहड़ी मझारी, वीरमती परणाविउ नारि । राजकाज छोड्या व्यापार, मनशुद्धई माडिउ व्यवहार ॥५०॥ जोउ जोउ विमल जनम हूउरे, जोउ जोउरे हौत्रा त्रिभुवन जाण तु ।" ........""""||६२॥ वि० प्र० पृ०१०२,१०५ विमलप्रबन्ध के कर्ता का उद्देश्य चरित्रनायक की कीर्तिकथा वर्णन करने का है. नहीं कि ऐतिहासिक दृष्टि से कारणकार्य पर विचार करते हुए समय, स्थान का पूर्ण ध्यान रखते हुये घटनाओं का क्रम सजाने का। जैसा सिद्ध है कि विमल का ज्येष्ठ भ्राता नेढ़ था, परन्तु विमल प्रबन्धकर्ता ने नेढ़ का यथास्थान उल्लेख नहीं किया है जो अखरता है। पञ्चासवी गाथा की द्वितीय पंक्ति भी यहां अखरती है । 'राज्यकार्य छोड़ दिया, आत्मा की शुद्धि में लग गये और फिर ६२वी (बासठवी) गाथा में पुत्रोत्पत्ति का वर्णन करना रचनाशैली की दृष्टि से आलोच्य है। उत्तमकोटि का श्रावक वह ही कहा जा सकता है जो श्रावक के १२ बारह व्रतों का परिपालन करने का व्रत लेता है और यथा विध उनको श्राचरता है। ३-प्राणिवधो मृषावादो२ ऽदत्त मैथुनं ४ परिग्रहश्चैव" । दिगद भोगो दंड: सामायिक देशस्तथा १० पोषधा विभाग: १२॥ ४-उपदेशकल्पवल्ली और विमल-प्रबन्ध में लिखा है कि जब मंत्री वीर के स्वर्गारोहण के पश्चात् विधवा वीरमती दारिद्रय से अति पीड़िता हो उठी और द्वेषी मनुष्यों से सताई जाने लगी, तब वह पत्तन छोड़ कर अपने पुत्रों सहित अपने पिता के घर चली गई और वहीं दुःख के दिवस निकालने लगी। यह कथा असत्य एवं निराधार प्रतीत होती है। कारण कि वि० सं०१०८८ में विमलशाह ने अर्बुदगिरि पर विमलवसति नामक जगद्विख्यात मन्दिर १८,५३,००,०००) रुपये व्यय करके विनिर्मित करवाया तथा कई वर्ष इससे पहिले वह विवाहित हो चुका था, सम्राट भीमदेव उसकी वीरता एवं पराक्रम से प्रसन्न होकर उसको महादंडनायकपद पर आरूढ़ कर चुके थे,
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy