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________________ ] :: प्राग्वाट - इतिहास :: [ प्रथम आचार्यश्री से निवेदन किया । आचार्य ने कहा कि अगर तुम सपरिवार श्रावकधर्म को अंगीकृत करो और कुरजी को हमको शिष्य रूप से अर्पित करो तो तुम्हारा पुत्र स्वस्थ और चिरंजीव बन सकता है। नाना ने आचार्यश्री के कथन को मानकर जैनधर्म स्वीकार किया और कुरजी को स्वस्थ होने पर दीक्षा देने का वचन दिया । आचार्यश्री ने मंत्रबल से सिकोतरीदेवी को कुरजी के शरीर से बाहिर निकाल दिया । कुरजी का अब स्वास्थ्य दिन - दिन सुधरने लगा और थोड़े ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया । कुरजी जब पूर्ण स्वस्थ हो गया तो आचार्यश्री ने उसको भागवतीदीक्षा देने का विचार किया । कुरजी का विवाह स्थानीय किसी श्रेष्ठि की कुमारी से होना निश्चित हो चुका था। जब कुरजी की दीक्षा देने के समाचार उक्त कुमारी को प्राप्त हुये, वह उपाश्रय में आचार्यश्री के समक्ष जाकर प्रार्थना करने लगी कि कुरजी उसका भविष्य में पति बनने वाला है, उसको अतः दीक्षा देना मुझ निरपराध बाला पर अन्याय करना है। इस पर आचार्यश्री ने उक्त कुमारी से कहा कि उसका रोग श्रावकधर्म स्वीकार करने से दूर हो गया है, अतः अगर वह भी और उसके माता, पिता सपरिवार श्रावकधर्म स्वीकार करें, तो कुरजी को दीक्षा नहीं दी जावेगी और उसको उसके माता-पिता को पुनः अर्पित कर दिया जावेगा । कुमारी ने उक्त बात से अपने माता-पिता को अवगत किया । कुमारी का पिता भी जैनधर्म का श्रद्धालु और अत्यन्त धनी और महाप्रभावक पुरुष था । उसने तुरन्त जैनधर्म अंगीकृत करना स्वीकार किया । १ पारायणगोत्रीय श्रेष्ठि नाना, २ पुष्पायनगोत्रीय श्रे० माधव, ३ अग्निगोत्रीय श्रे० जूना, ४ वच्छसगोत्रीय श्रेष्ठ माणिक, ५ कारिसगोत्रीय श्रे० नागड़, ६ वैश्यकगोत्रीय श्रे० रायमल्ल ७ मादरगोत्रीय श्रे० अनु इन सातों पुरुषों ने अपने सातों परिवारों के सहित एक साथ जैनधर्म स्वीकार किया । आचार्यश्री ने उनको वि० सं० ७६५ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को जैन बनाया और उनको प्राग्वाट श्रावकवर्ग में सम्मिलित किया । 1 राजस्थान की अग्रगण्य कुछ पौषधशालायें और उनके प्राग्वाटज्ञातीय श्रावककुल गोडवाड़ - प्रान्त कासेवाड़ी ग्राम बालीनगर से थोड़े कोशों के अन्तर पर ही बसा हुआ है । यहाँ की पौषधशाला* राजस्थान की अधिक प्राचीन पौषधशालाओं में गिनी जाती है । इस पौधशाला के भट्टारकों के आधिपत्य में ओसवाल और प्राग्वाट ज्ञाति के कई एक कुलों का लेखा है । जिनमें • सेवाड़ी की कुलगुरु-पौषधशाला प्राग्वाटज्ञाति के संख्या में चौदह (१४) गोत्र हैं । इनं गोत्रों के कुल अधिकांशतः गोडवाड़प्रान्त के बाली और देसूरी के प्रगणों में बसते हैं । कुछ के परिवार अन्य प्रांतों में भी जाकर बस गये हैं। और कुछ नामशेष भी हो गये हैं । ४ - वि० सं० १७४३ में श्री अमरसागरसूरि ने चौथा भाग लिखा । ५- वि० सं० १८२८ में सूरत में उपा० ज्ञानसागरजी ने पांचवा भाग लिखा । ६ - वि० सं० १६८४ में मुनि धर्मसागरजी ने छट्टा भाग लिखा । * गोत्रों की सूचि उक्त पौधशाला के भट्टारक कुलगुरु मणिलालजी के सौजन्य से प्राप्त हुई है।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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