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________________ मृत्यु महोत्सव मृत्यु-काले सतां दुःखं, यद्भवेद्व्याधि-संभवम् । देह-मोह - विनाशाय, मन्ये शिव-सुखाय च ॥१२॥ में अन्वयार्थ - (सतां) सत्पुरुषों के ( मृत्युकाले ) मृत्युकाल ( व्याधिसंभवं ) व्याधियों से उत्पन्न (यत्) जो (दुःखं) दुःख ( भवेत् ) होता है, (मन्ये) मैं समझता हूँ ( देहमोहविनाशाय ) देह-संबंधी मोह नष्ट करनेके लिए (च) और (शिवसुखाय ) शिवसुख के लिए होता है । मृत्यु-काल में सत्पुरुषों को, जो पीड़ा उठ आती है, कर्म- जनित कुछ तीव्र व्याधियाँ, आकुलता उपजाती हैं। मैं तो मानूँ यह पीड़ा ही, देह-मोह को दूर करे, समता का अवसर प्रदान कर, शिव-सुख से भरपूर करे ॥ अन्तर्ध्वनि: मृत्यु के समय यदि कोई व्याधिजनित पीड़ा उत्पन्न हो जाये, तब अनिष्ट चिन्तन न करके यही समझना चाहिए कि यह पीड़ा मेरे देह-मोह को नष्ट करने आई है अथवा यह मानना चाहिए कि कष्ट के बिना सुख नहीं मिलता; यह कष्ट मुझे मोक्ष-सुख प्रदान करेगा, क्योंकि प्रतिकूलता में कर्मों का क्षय तीव्र गति से होता है। Essence : If during the end of their life, gentlemen have to face severe painful situations on account of disease, never mind it. In my opinion, this is for destroying bodily attachment and acquiring bliss of liberation. १२
SR No.007251
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar Muni
PublisherPrakash C Shah
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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