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________________ जैन शतक पुस्तकालय, अनारकली, जैन गली, लाहौर का। ये दोनों संस्करण अलवर वाले संस्करण की अपेक्षा कई गुना अच्छे हैं । इन दोनों संस्करणों में प्रत्येक छन्द का अर्थ भी दिया गया है। सूरत वाले संस्करण का अर्थ - जिसे वहाँ'भावार्थ' कहा गया है - पण्डित ज्ञानचन्द्रजी जैन 'स्वतंत्र' ने लिखा है और लाहौर वाले संस्करण का अर्थ बाबू ज्ञानचन्द्रजी जैनी ने लिखा है। परन्तु पहली बात तो यह है कि ये दोनों ही संस्करण आज बिल्कुल अनुपलब्ध हैं। सूरत वाला संस्करण सन् १९४७ ई. में छपा था और लाहौर वाला संस्करण सन् १९०९ ई. में छपा था। दूसरी बात - इन दोनों संस्करणों के प्रकाशन में भी सुन्दरता और सुव्यवस्था तो है ही नहीं, छन्दों के अर्थों में भी कहीं-कहीं बड़ी भूलें और कमियाँ रह गई हैं, जो काव्य की गरिमा को भी कम करती हैं और ग्रन्थकार के मूल अभिप्राय को भी सही-सही नहीं समझातीं। उदाहरण के लिए छन्दसंख्या ३१ की यह पंक्ति देखिये : "मानुषभौ मुकताफलहार, गँवार तगा-हित तोरत यों ही॥" इसका सीधा-सच्चा अर्थ यह है कि मनुष्यभव मोतियों का हार है जिसे अज्ञानी प्राणी मात्र धागे के लिए व्यर्थ ही तोड़ रहा है – नष्ट कर रहा है'। किन्तु सूरत वाले संस्करण में इसका अर्थ छपा है कि 'मनुष्य की पर्याय मोतियों के हार (माला) जैसी है, मूर्ख इसके तागे को व्यर्थ ही तोड़ रहा है।' यह अर्थ बिल्कुल गलत है । धागा नहीं तोड़ा जा रहा है, बल्कि धागे के लिए मोतियों का हार तोड़ा जा रहा है। इसीप्रकार छन्द-संख्या ४८ की यह आधी पंक्ति देखिये : 'बुध संजम आदरहु' इसका अर्थ एकदम स्पष्ट है कि 'ज्ञानपूर्वक संयम का आदर करो', किन्तु सूरत वाले संस्करण में इसका अर्थ छपा है कि 'बुधजनों की संगति करो'। पता नहीं इतना सरल अर्थ भी उसमें इतना गलत क्यों छपा है? एक नमूना और देखिये। छन्द-संख्या ५४ की अन्तिम पंक्ति है :'गनिका सँग जे सठ लीन रहैं, धिक है धिक है धिक है तिनकौं।' इसका अर्थ सूरत वाले संस्करण में छपा है कि 'जो मूर्ख वेश्या से प्रेम करते हैं उनके लिए तीन बार धिक्कार है।'
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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