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________________ 'जैन शतक' के गद्यानुवाद की कहानी (प्रथम संस्करण से) आज से लगभग डेढ़ वर्ष पहले मैंने श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मण्डल, अलवर (राजस्थान) द्वारा प्रकाशित 'जैन शतक' पुस्तक का स्वाध्याय किया था। यह पुस्तक मुझे बहुत ही अच्छी लगी। मैंने इसका बार-बार स्वाध्याय किया। इसके अनेक छन्द मुझे अपने ही आप कंठस्थ हो गये। मैं उन्हें जब-तब रस ले-लेकर खूब गुनगुनाने लगा, अपने सम्पर्क में आने वाले प्रायः हर व्यक्ति को सुनानेसमझाने लगा, यहाँ तक कि अपने शास्त्र-प्रवचनों में भी उद्धृत करने लगा और इसप्रकार, मैं इस 'जैन शतक' से बहुत प्रभावित हो उठा। या यों कहिए कि मैं 'जैन शतक' का 'दीवाना' ही हो गया। इससे मेरे अनेक प्रिय मित्रों और धर्मानुरागी श्रोताओं को 'जैन शतक' के अध्ययन की प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई। मैं उन्हें अलवर से प्रकाशित 'जैन शतक' देता। परन्तु यह बहुत ही साधारण रूप से छपा था। इसमें छन्दों का सरलार्थ तो दूर, किन्तु मूल छन्दों का मुद्रण भी सही रीति से नहीं हुआ। छन्दों के सभी (चारों/छहों) चरण एक-दूसरे के साथ घुले-मिले हुए थे। ऐसा लगता था, मानों गद्य हो। इसलिए कोई भी सामान्य पाठक उनका अर्थ समझना तो दूर, उन्हें ठीक तरह से गा भी नहीं पाता था। ऐसी स्थिति में मेरे मित्रों और श्रोताओं की प्रबल भावना हुई कि इस पुस्तक का पुनर्प्रकाशन ऐसा होना चाहिए जो सुन्दर और सुव्यवस्थित तो हो ही, उसमें प्रत्येक छन्द का प्रामाणिक अर्थ भी हो। उन्होंने इसके लिए मुझसे आग्रह किया। मेरी भी कुछ-कुछ इच्छा तो थी ही, परन्तु अन्य अध्ययन में व्यस्त होने के कारण उसमें साकार होने की क्षमता नहीं थी; मित्रों और श्रोताओं के आग्रह से वह क्षमता प्राप्त हुई। फलस्वरूप दि. ३०-३-९८ को मैंने इसके पहले छन्द का अर्थ लिख लिया। शनैः शनैः गाड़ी आगे बढ़ निकली और लगभग छह माह में सरलार्थ-लेखन का कार्य करीब-करीब पूरा हो गया। इस अवधि के बीच मुझे 'जैन शतक' के दो पुराने संस्करण और प्राप्त हुए। एक था दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत का और दूसरा था दिगम्बर जैन धर्म
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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