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________________ जैन शतक यह जीवन वैसे ही कितना थोड़ा-सा है, और उसमें भी बहुत सारा तो बीत ही चुका है, अब शेष बचा ही कितना है; परन्तु यह अज्ञानी प्राणी न जाने क्याक्या उलटे-सीधे करता रहता है, अपने को होशियार समझता है, और सबको मूर्ख समझता है । देखो तो सही ! सन्ध्या होने जा रही है, पर यह अभी सवेरा ही समझ रहा है। ५९ अभी भी सारे जगत् और उसके क्रियाकलापों को अपनी चर्म चक्षुओं से ही देख रहा है, हृदय की आँखों से नहीं देखता; हृदय की आँखों में तो इसने अभी भी अँधेरा कर रखा है। लेकिन अब अचानक ( कभी भी ) यमराज एक बाण ऐसा खींचकर चलाने वाला है कि बस फिर श्मशान में हड्डियों का ढेर ही दिखाई देगा। (कवित्त मनहर ) केती बार स्वान सिंघ सावर सियाल साँप, सिँधुर सारङ्ग सूसा सूरी उदरै पर् यो । के ती बार चील चमगादर चकोर चिरा, चक्रवाक चातक चेंडूल तन भी धय ॥ केती बार कच्छ मच्छ मेंडक गिंडोला मीन, शंख सीप कौंड़ी है जलूका जल मैं तिर्यौ । कोऊ कहै 'जायं रे जनावर !' तो बुरो मानै, यौं न मूढ़ जानै मैं अनेक बार है मौ ॥ ७८ ॥ यद्यपि यह अज्ञानी कितनी ही बार कुत्ता, सिंह, साँभर (एक प्रकार का हिरण), सियार, सर्प, हाथी, हिरण, खरगोश, सुअर आदि अनेक थलचर प्राणियों के रूप में उत्पन्न हुआ है; कितनी ही बार चील, चमगादड़, चकोर, चिड़िया, चकवा, चातक, चंडूल ( खाकी रंग की एक छोटी चिड़िया) आदि अनेक नभचर प्राणियों के रूप में उत्पन्न हुआ है; और कितनी ही बार कछुआ, मगरमच्छ, मेंढक, गिंदोड़ा, मछली, शंख, सीप, कौंडी, ज्ञोंक आदि अनेक जलचर प्राणियों के रूप में भी उत्पन्न हुआ है; तथापि यदि कोई इसे 'जानवर' कह दे तो बुरा मानता है खेदखिंन होता है; यह विचारकर समता धारण नहीं करता कि जानवर तो मैं अनेक बार हुआ हूँ, हो-होकर मरा हूँ ।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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