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________________ जैन शतक ४६. आशारूपी नदी (कवित्त मनहर) मोह से महान ऊँचे पर्वत सौं ढर आई, तिहूँ जग भूतल मैं याहि विसतरी है। विविध मनोरथमै भूरि जल भरी बहै, तिसना तरंगनि सौं आकुलता धरी है। परै अम-भौंर जहाँ राग-सो मगर तहाँ, चिंता तट तुङ्ग धर्मवृच्छ ढाय ढरी है। ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताकौ, धन्य साधु धीरज-जहाज चढ़ि तरी है ॥७६ ॥ आशारूपी नदी बड़ी अगाध - गहरी है। । यह मोहरूपी महान् पर्वत से ढलकर आई है, तीनों लोकरूपी पृथ्वी पर बह रही है, इसमें विविध मनोरथमयी जल भरा हुआ है, तृष्णारूपी तरंगों के कारण इसमें आकुलता उत्पन्न हो रही है, भ्रमरूपी भँवरें पड़ रही हैं, रागरूपी बड़ा मगरमच्छ इसमें रहता है, चिन्तारूपी इसके विशाल तट हैं, और यह धर्मरूपी विशाल वृक्ष को गिरा कर बह रही है। अहो ! वे साधु धन्य हैं, जिन्होंने धैर्यरूपी जहाज पर चढ़कर इस आशा नदी को पार कर लिया है। ४७. महामूढ़-वर्णन ___(कवित्त मनहर) जीवन कितेक तामैं कहा बीत बाकी रह्यौ, तापै अंध कौन-कौन करै हेर फेर ही। आपको चतुर जाने औरन को मूढ़ मान, __साँझ होन आई है विचारत सवेर ही॥ चाम ही के चखन तैं चितवै सकल चाल, उर सौं न चौंधे, कर राख्यौ है अँधेर ही। बाहै बान तानकै अचानक ही ऐसौ जम, दीसहै मसान थान हाड़न को ढेर ही॥७७॥
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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