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________________ जैन शतक यहाँ जो अचेत होकर सोता है वह अपनी संपत्ति खो बैठता है । अत: भाई ! गाफिल मत होओ, रात बड़ी अँधेरी है। गुरुरूपी पहरेदार भी दया करके आवाज लगा रहे हैं कि हे राहगीर ! जागते रहो, यहाँ चोरों का डर है । ४०. कषाय जीतने का उपाय ५४ (मत्तगयंद सवैया) टरैगौ । छेमनिवास छिमा धुवनी विन, क्रोध पिशाच उरै न कोमलभाव उपाव विना, यह मान महामद कौन हरैगौ ॥ आर्जव सार कुठार विना, छलबेल निकंदन कौन करैगौ । तोषशिरोमनि मन्त्र पढ़े विन, लोभ फणी विष क्यौं उतरैगौ ॥ ६९॥ क्रोधरूपी पिशाच, जिसमें कुशलता निवास करती है ऐसी क्षमा की धूनी दिये बिना दूर नहीं हटेगा, मानरूपी प्रबल मदिरा कोमलभाव के बिना नहीं उतरेगी, छलरूपी बेल आर्जवरूपी तीक्ष्ण कुल्हाड़ी के बिना नहीं कटेगी, और लोभरूपी विषैले सर्प का जहर सन्तोषरूपी महामन्त्र के जाप बिना नहीं उतरेगा। तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों का अभाव करने का एक मात्र उपाय उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव और उत्तम शौचरूप आत्मधर्म ही है। ४१. मिष्ट वचन (मत्तगयन्द सवैया) काहे को बोलत बोल बुरे नर ! नाहक क्यौं जस-धर्म गमावै । कोमल चैन चवै किन ऐन, लगे कछु है न सबै मन भावे ॥ तालु छिदै रसना न भिदै, न घटै कछु अंक दरिद्र न आवै । जीभ कहैं जिय हानि नहीं तुझ, जी सब जीवन को सुख पावै ॥ ७० ॥ हे भाई! कठोर वचन क्यों बोलते हो? कठोर वचन बोलकर व्यर्थ ही क्यों अपना यश और धर्म नष्ट करते हो? अच्छे व कोमल वचन क्यों नहीं बोलते हो? देखो ! कोमल वचन सबके मन को अच्छे लगते हैं; जबकि उन्हें बोलने में कोई धन नहीं लगता, बोलने पर तालू भी नहीं छिदता, जीभ भी नहीं भिदती, रुपया-पैसा कुछ घट नहीं जाता और दरिद्रता भी नहीं आ जाती। इसप्रकार अपनी जीभ से मधुर और कोमल वचन बोलने में तुम्हें हानि कुछ भी नहीं होती, अपितु सुनने वाले सब जीवों के मन को बड़ा सुख प्राप्त होता है; अतः कोमल वचन ही बोलो, कटु वचन मत बोलो।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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