SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन शतक तथा यह मनरूपी हाथी सिद्धान्त (शास्त्र) रूपी सरोवर में स्नान करके भी पापरूपी धूल से खेल रहा है, अपने इन्द्रियरूपी कानों को चपलता - पूर्वक बारम्बार हिला रहा है और कुमतिरूपी हथिनी के साथ रतिक्रीड़ा कर रहा है। ५३ इस प्रकार यह मनरूपी हाथी अत्यधिक मदोन्मत्त होता हुआ स्वच्छंदतापूर्वक घूम रहा है, गुणरूपी राहगीर इसके पास तक नहीं आ रहे हैं; अत: इसे वैराग्यरूपी स्तंभ से बाँधो । तात्पर्य यह है कि हमें अपने चंचल मन को वैराग्य- भावना के द्वारा स्थिर या एकाग्र करना चाहिए, अन्यथा यह हमारे ज्ञान, शील आदि सर्व गुणों का विनाश कर देगा और हमारे ऊपर गुरुवचनों व जिनवचनों का कोई असर नहीं होने देगा। जबतक हमारा मन चंचल है तब तक कोई सद्गुण हमारे समीप तक नहीं आएगा। विशेष :- यहाँ मन को हाथी की उपमा देते हुए कवि ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सांगरूपक का निर्माण किया है। आचार्य गुणभद्र ने भी अपने 'आत्मानुशासन' (श्लोक १७० ) में मन को विविध प्रकार से बन्दर की उपमा देते हुए इसीप्रकार का अभिप्राय प्रकट किया है। ३९. गुरु-उपकार ( कवित्त मनहर ) ढई - सी सराय काय पंथी जीव वस्यौ आय, रत्नत्रय निधि जापै मोख जाकौ घर है । मिथ्या निशि कारी जहाँ मोह अन्धकार भारी, कामादिक तस्कर समूहन को थर है ॥ सोवै जो अचेत सोई खोवै निज संपदा कौ, तहाँ गुरु पाहरु पुकारें दया कर है । गाफिल न हूजै भ्रात ! ऐसी हैं अँधेरी रात, जाग रे बटोही ! इहाँ चोरन को डर है ॥ ६८ ॥ हे भाई ! यह शरीर ढह जाने वाली धर्मशाला के समान है। इसमें एक जीवरूपी राहगीर आकर ठहरा हुआ है। उसके पास रत्नत्रयरूपी पूँजी है और मोक्ष उसका घर है । यात्रा के इस पड़ाव पर मिथ्यात्वरूपी काली रात है, मोहरूपी घोर अन्धकार है और काम-क्रोध आदि लुटेरों के झुण्डों का निवास है ।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy