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________________ २४ जैन शतक १२. राग और वैराग्य का अन्तर (कवित्त मनहर) राग-उदै भोग-भाव लागत सुहावने-से, , विना राग ऐसे लागैं जैसैं नाग कारे हैं। राग ही सौं पाग रहे तन मैं सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं। राग ही सौं जगरीति झूठी सब साँची जाने, राग मिटैं सूझत असार खेल सारे हैं। रागी-विनरागी के विचार मैं बड़ौई भेद, जैसे भटा पच काहू काहू को बयारे हैं ॥१८॥ पंचेन्द्रिय के विषयभोग और उन्हें भोगने के भाव, राग (मिथ्यात्व) के उदय में सुहावने-से लगते हैं, परन्तु वैराग्य होने पर काले नाग के समान (दुःखदायी और हेय) प्रतीत होते हैं। राग ही के कारण अज्ञानी जीव शरीरादि में रम रहे हैं - एकत्वबुद्धि कर रहे हैं । राग समाप्त हो जाने पर तो शरीरादि से भेदज्ञान प्रकट होकर विरक्ति उत्पन्न हो जाती है। राग ही के कारण अज्ञानी जीव जगत् की समस्त झूठी स्थितियों को सच्ची मान रहा है; राग समाप्त हो जाने पर तो जगत् का सारा खेल असार दिखाई देता है। इसप्रकार रागी (मिथ्यादृष्टि) और विरागी. (सम्यग्दृष्टि) के विचार (मान्यता) में बड़ा भारी अन्तर होता है । बैंगन किसी को पच जाते हैं और किसी को बादी करते हैं – वायुवर्द्धक होते हैं। आशय यह है कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि की मान्यता में जमीनआसमान का अन्तर होता है। मिथ्यादृष्टि को विषयभोग सुखदायी और उपादेय लगते हैं, पर सम्यग्दृष्टि उन्हें काले नाग के समान दुःखदायी और हेय समझता है। मिथ्यादृष्टि शरीरादि परपदार्थों में एकत्वबुद्धि करता है, पर सम्यग्दृष्टि उन्हें पर जानकर उनसे विरक्त रहता है । मिथ्यादृष्टि जगत् के झूठे सम्बन्धों को सारभूत समझता है, परन्तु सम्यग्दृष्टि उन्हें नितान्त सारहीन मानता है।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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