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________________ जैन शतक ११. वैराग्य-कामना (कवित्त मनहर) कब गृहवास सौं उदास होय वन सेऊँ, . वेॐ निजरूप गति रोकूँ मन-करी की। रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग, । सहि हौं परीसा शीत-घाम-मेघझरी की। सारंग समाज खाज कबधौं खुजेहैं आनि, ध्यान-दल-जोर जीतूं सेना मोह-अरी की। एकलविहारी जथाजातलिंगधारी कब, __ होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की॥१७॥ अहो ! वह घड़ी कब आयेगी, जब मैं गृहस्थदशा से विरक्त होकर वन में जाऊँगा, अपने मनरूपी हाथी को वश में करके निज आत्मस्वरूप का अनुभव करूँगा, एक आसन पर निश्चलतया स्थिर रहकर सर्दी, गर्मी, वर्षा के परीषहों को सहन करूँगा, मृगसमूह (मेरे निश्चल शरीर को पाषाण समझकर उससे) अपनी खाज (चर्मरोग) खुजायेंगे और मैं आत्मध्यानरूपी सेना के बल से मोहरूपी शत्रु की सेना को जीतूंगा? ___ अहो! मैं ऐसी उस अपूर्व घड़ी की बलिहारी जाता हूँ, जब मैं एकल-विहारी होऊँगा, यथाजातलिंगधारी (पूरी तरह नग्न दिगम्बर) होऊँगा और पूर्णतः स्वाधीन वृत्तिवाला होऊँगा। विशेष :-१. यहाँ मन को हाथी की उपमा दी गई है। इस सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ का ६७वाँ छन्द विशेषतः द्रष्टव्य है जिसमें कवि ने अनेक प्रकार से मन को हाथी के समान सिद्ध भी किया है। २. 'उदास' शब्द का अर्थ प्रायः लोग दु:खी या परेशान समझते हैं; पर यहाँ उसका अर्थ ऐसा नहीं है। वास्तव में 'उदास' शब्द का सही अर्थ 'विरक्त' ही होता है और वही यहाँ अभीष्ट है। ३. मृगसमूह द्वारा खाज खुजाने की बात अनेक पूर्वाचार्यों ने भी कही है। इसके द्वारा ध्यान की उत्कृष्टता को बताया गया है। ___४. इस कवित्त के भावसाम्य हेतु 'पद्मनन्दि पंचविशतिका' में 'यतिभावनाष्टक' के द्वितीय श्लोक को देखा जा सकता है। ५. यथाजातलिंगधारी = जैसा जन्म के समय रूप था, उसका ही धारक अर्थात् पूर्णतया नग्न दिगम्बर।
SR No.007200
Book TitleJain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Mahakavi, Virsagar Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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