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________________ ८१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है असाधारणगुण का स्वामी पर विभाव में सक्रिय है। पर द्रव्य आदि से मोहित है अपने हित में तो निष्क्रिय है।। ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय सम वत श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (११) शुद्ध चिद्रूप सदध्यानपुत्रसूतिर्न जायते । कर्माङ्गादद्यखिलेसंगे निर्ममतामातरं विना ॥११॥ अर्थ- जिस प्रकार बिना माता के पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्मद्वारा प्राप्त होने वाले समस्त परिग्रहों में बिना ममता त्यागे शुद्ध चिद्रूप का ध्यान भी होना असंभव है अर्थात् पुत्र की प्राप्ति में जिस प्रकार माता कारण है। उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप के ध्यान में स्त्री पुत्र आदि में निर्ममता होना कारण है। ११. ॐ ह्रीं निर्ममज्ञायकस्वरूपाय नमः | ब्रह्मस्वरूपोऽहम् । वीरछंद जैसे जग में बिन माता के पुत्र नहीं होता उत्पन्न । त्यों चिद्रूप ध्यान ना होता जब तक उर ममता सम्पन्न | जब तक है ममत्व परिणाम तभी तक मोह जनित दुख हैं । जब ममत्व क्षय हो जाता है तब समत्व का ही सुख है॥११॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१२) ततस्यगतचिंता निर्जनताऽऽसन्नभव्यता । भेदज्ञानं परस्मिन्निर्ममता ध्यानहेतवः ॥१२॥ अर्थ- इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि चिंता का अभाव एकांत स्थान, आसन्नभव्यपना, भेदविज्ञान और दूसरे पदार्थों में निर्ममता ये शुद्ध चिद्रूप के ध्यान में कारण हैं बिना इनके शुद्ध चिद्रूप का कदापि ध्यान नहीं हो सकता। १२. ॐ ह्रीं आसन्नभव्यादिविकल्परहितचिद्रूपाय नमः । एकत्वविभक्तोऽहम् । अतः सिद्ध यह हुआ कि चिन्ता का अभाव हो थल एकान्त। हो आसन्न भव्यता उत्तम भेद ज्ञान हो मन हो शान्त ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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