SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन . अक्रमवर्ती गुण होते हैं क्रमवर्ती होती पर्याय । श्रद्धा यही क्रम नियत करके निज त्रैकालिक ध्रुव को ध्याय॥ | ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (९) दूरभव्यस्य नो शुद्धचिद्रूपध्यानसंरुचिः । यथाऽजीर्णविकारस्य न भवेदन्न संरुचिः ।।९॥ अर्थ- जिसको अजीर्ण का विकार है खाया पीया नहीं पचता, उसकी जिस प्रकार अन्न में रुचि नहीं होती। उसी प्रकार जो दूर भव्य है, उसकी शुद्ध चिद्रूप के ध्यान में प्रीति नहीं हो सकती है ९. ॐ ह्रीं दूरभव्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । नित्यानन्दोऽहम् । जिसे अजीर्ण विकार उसे रुचि नहीं अन्न में होती है । त्यों जो दूर भव्य है उसको रुचि चिद्रूप न होती है | दूर भव्य भी नहीं कभी तू निकट भव्य आसन्न महान । निज चिद्रूप शुद्ध का ही पुरुषार्थ जगा तू श्रेष्ठ प्रधान ॥९॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (90) भेदज्ञानं बिना शुद्धचिद्रूपज्ञानसंभवः । भवेन्नैव यथापुसलंभूतिर्जनक् विना ||१०॥ अर्थ जिस प्रकार कि पुरुष के बिना स्त्री के पुत्र नहीं हो सकता उसी प्रकार बिना भेद विज्ञान के शुद्ध चिद्रूप का ध्यान भी नहीं हो सकता । १०. ॐ ह्रीं अचेतनशरीरादिपरद्रव्यरहितनिजचिद्रूपाय नमः । शुद्धबोधस्वरूपोऽहम् । .. बिना पुरुष संयोग पुत्र की प्राप्ति न नारी को होती । त्यों चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति भेद ज्ञान बिन ना होती ॥ भेद ज्ञान पाने का ही पुरुषार्थ प्रथम करना होगा । स्वपर विवेक जगा अंतर में कर्म बंध हरना होगा |॥१०॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy