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________________ ७३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जीव अजीव तत्व सामान्य कहाता है जिन आगम में । आस्रवादि पांचों इनके ही हैं विशेष जिन आगम में | निजानंदी स्वचंदन ही परम शीतल स्वभावी है । द्रव्य पर से नही मतलब यही भव ज्वर अभावी है ॥ शुद्ध चिद्रूप का आनंद मेरे मन को भाया है । अनंतों गुणों का सागर नाथ अब मैंने पाया है ॥ ॐ ह्रीं तृतीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. । निजानंदी स्वअक्षत की सकल महिमा मिली मुझको । स्व पद अक्षय अनूठे की सुरभि उर मे झिली मुझको || शुद्ध चिद्रूप का आनंद मेरे मन को भाया है । अनंतों गुणों का सागर नाथ अब मैंने पाया है ॥ ॐ ह्रीं तृतीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं नि. । निजानंदी कुसुम पाकर प्रफुल्लित है ह्रदय मेरा । कामपीड़ा विनाशक है स्वभावी निज निलय मेरा ॥ भाया है । पाया है ॥ ॐ ह्रीं तृतीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. । शुद्ध चिद्रूप का आनंद मेरे मन को अनंतों गुणों का सागर नाथ अब मैंने निजानंदी सुचरु पाकर तृप्त मैं हो गया स्वामी । क्षुधा का रोग क्षय करके बना परिपूर्ण गुणधामी ॥ शुद्ध चिद्रूप का आनंद मेरे मन को अनंतों गुणों का सागर नाथ अब मैंने भाया है । पाया है ॥ ॐ ह्रीं तृतीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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