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________________ ५९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के रूप न होता यह जाना । तथा एक गुण कभी अन्य गुण रूप नहीं होता माना ॥ कर्म नाश बिन पूर्ण शुद्ध चिद्रूप नहीं होता है प्राप्त । कर्म नाश बिन कोई प्राणी कभी नहीं होता है आप्त ॥७॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) क्व यांति कार्यणि शुभाशुभानि क्व यांति संगाश्चिदचित्स्वरूपाः। क्व यांति रागादय एव शुद्धचिद्रूपकोकहं स्मरणेन विद्मः ॥८॥ अर्थ हम नहीं कह सकते कि "शुद्धचिद्रूपोऽहं" मैं शुद्ध चित्स्वरूप हूं ऐसा स्मरण करते ही शुभ अशुभ कर्म, चेतन अचेतन स्वरूप परिग्रह और राग द्वेष आदि दुर्भाव कहां लापता हो जाते हैं? ८. ॐ ह्रीं शुभाशुभविकल्परहितशुद्धस्वरूपाय नमः । नि:सङ्गोऽहम् । एक शुद्ध चिद्रूप शक्ति का ही स्मरण परम सुखरूप । यही शुद्ध चित्स्वरूप अपना ध्यान योग्य है परम अनूप॥ कर्म शुभाशुभ क्षय करता है राग द्वेष दुर्भाव विलय । चित्स्वरूप से परिग्रह चेतन और अचेतन होते लय | एक शुद्ध चिद्रूप नाम का जो भी प्राणी करता जाप । भव का जाल काट देता है क्षय करता भव का संताप ॥८॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । मेरुः कल्पतरुः सुवर्णममृतं चिंतामणि केवलंसाम्यं तीर्थकरो यथा सुरगवी चक्री सुरेन्द्रो महान् । भूभृद्भूरुहधातुपेयमणिधी, वृत्ताप्तगोमानवा मर्येष्वेव तथा च चिंतनमिह ध्यानेषु शुद्धात्मनः ॥९॥ अर्थ- जिस प्रकार पर्वतों में मेरु, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धातुओं में स्वर्ण, पीने योग्य पदार्थों में अमृत, रत्नों में चिंतामणि रत्न, ज्ञानों में केवलज्ञान, चारित्रों में समतारूप चारित्र,
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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