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________________ ३४८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन निष्क्रिय निर्विकल्प आत्मा को पूर्ण विकारी बना दिया । संयम युत निज तरणी पायी उसको मैंने डुबा दिया || ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (११) ज्ञेयज्ञानं सरागेण चेतसा दुःखमंगिनः । निश्चयश्च विरागेण चेतसा सुखमेव तत् ॥११॥ अर्थ- रागी द्वोषी और मोही चित्त से जो पदार्थों का ज्ञान किया जाता है, वह दुःखरूप है। उस ज्ञान से जीवों को दुःख भोगना पड़ता है। और वीतराग वीरद्वेष और वीतमोह चित्त से जो पदार्थों का ज्ञान होता है वह सुख स्वरूप है। उस ज्ञान से सुख की प्राप्ति होती हैं । ११. ॐ ह्रीं सरागचित्तयुक्तज्ञेयज्ञानरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विरागोकसोऽहम् । मानव रागी द्वेषी मोही चित स पदार्थ ज्ञान होता है । वह दुख स्वरूप है उससे दुख ही दुख तो होता है ॥ पर वीतराग मति से तो जो पदार्थ ज्ञान होता है । वह सुख स्वरूप है उससे सुख ज्ञान प्राप्त होता है ॥ केवल चिद्रूप शुद्ध को ज्ञानी जन ही पाते हैं । वेही निजात्मा में रह प्रतिपल इसको ध्याते है ॥११॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१२) रवेः सुधायाः सुरपादपस्य चिंतामणेरुत्तमकामधेनोः । दिवो विदग्धस्य हरेरखर्व गर्व हरन् भो विजयी चिदात्मा ॥१२॥ अर्थ- हे आत्मन् ! यह चिदात्म, सूर्य अमृत, कल्पवृक्ष, चिंतामणि, कामधेनु स्वर्ग, विद्वान और विष्णु के भी अखंड गर्व को देखते देखते चूर करने वाला है और विजय शील है । १२. ॐ ह्रीं रविसुधासुरपादपादिगर्वहरणविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अनुत्सेकज्ञानस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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