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________________ ३४७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान धर्म प्रवर्त्तन में जो बाधक वह प्रमाद क्षय किया नहीं । निज जीवत्व शक्ति को भूला उसको संग में लिया नहीं ॥ मानव आकुलता होती हो तो वह ज्ञान विद्य सविकल्पक । आकुलता अगर नहीं है तो ज्ञान विद्य अविकल्पक ॥ सविकल्प ज्ञान होने पर कर्मों का बंधन होता । अविकल्पी ज्ञान अगर हो तो सौख्य निराकुल होता ॥ चिद्रूप शुद्ध अति पावन यह निर्विकल्प अविकल्पी । अपना स्वरूप जब पाया तो क्यों होगा सविकल्पी ॥९॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१०) बहून् वारान् मया भुक्तं सविकल्पं सुखं ततः । तन्नापूर्व निर्विकल्पे सुखऽस्तीहा ततो मम ॥१०॥ अर्थ- आकुलता के भंडार इस सविकल्प सुख का मैने बहुत बार अनुभव किया है। जिस गति के अन्दर गया हूं, वहाँ मुझे सविकल्प ही सुख प्राप्त हुआ है। इसलिये वह मेरे लिये अपूर्व नहीं है। परन्तु निराकुलतामय निर्विकल्प सुख मुझे कभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये उसी की प्राप्ति के लिये मेरी अत्यन्त इच्छा है। वह कब मिले, इस आशा से सदा मेरा चित्त भटकता फिरता है । १०. ॐ ह्रीं सविकल्पसुखरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्विकल्पसौख्यस्वरूपोऽहम् । मावन आकुलता गृह सविकल्पी सुख का अनुभव है बहुधा । जिस गति में गया वहाँ ही पाया ऐसा सुख बहुधा ॥ यह सुख न अपूर्व मुझे है सुख निर्विकल्प ना पाया । उसको पाने की इच्छा ने मुझको आज जगाया ॥ कब उसे प्राप्त मैं कर लूं यह चित्त भटकता मेरा । चिद्रूप शुद्ध में भी तो मन नहीं रमा है मेरा ॥१०॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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