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________________ ३१९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निज स्वभाव विज्ञान ज्ञान धन परम परिणामिक स्वामी। भाव परिणाामिक के आश्रय से हो जाता अन्तर्यामी ॥ समभावी चंदन चर्चितकर भव आतप ज्वर नाश करूं.। अंतरंग में ज्ञान रूप तरु पावन पूर्ण विकास करूं ॥ वर्तमान बल को संचित कर यही प्रार्थना करता हूं। मैं वैराग्य भाव की निर्मल गंगा उर में भरता है | ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि । अक्षय पद की महिमा आयी देखा निज स्वरूप अक्षय । मानों भव समुद्र को तिरकर पाया सुन्दर ज्ञान निलय ॥ स्वपर विवेक मयी अक्षत जीवन जीने का भाव जगा । विषपायी पर परिणति भागी जिसने अब तक मुझे ठगा॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वितं श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं नि. । मैं निष्काम भावना पति बनने का यत्न करूंगा नाथ । कामबाण विध्वंस करूंगा निज चिद्रूप शुद्ध ले साथ || उत्तर गुण चौरासी लाख सुने हैं मैंने सिद्धों में । शील दोष अष्टादश सहस्र नहीं होते हैं सिद्धों में | ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. । चौरासी प्रकार के व्यंजन अहित सदा करते मेरा । क्षुधा व्याधि से रहित आत्मा का वैभव हरते मेरा || जब वैराग्य भाव जगता है तब प्राणी जाग्रत होता । परम तृप्ति दायक अशरीरी जीवन पा शाश्वत होता || ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तंरंगिणी जिनागमाय क्षधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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