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________________ २३१ __ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आत्म भावना भाओगे तो आत्मीक सुख होगा प्राप्त । आत्मीक आनंद मिलेगा हो जाओगे तुम भी आप्त || नष्ट करने में सर्वथा असमर्थ है |. ७. ॐ ह्रीं जलाग्निरोगादिस्तंभनक्रियारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानचमत्कारस्वरूपोऽहं ।। अग्नि रोग नृप सर्प चोर बैरी जल पवन जीत लेते । प्रबल शक्ति धर भी निजात्मा में लवलीन नहीं होते || अतः तत्त्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एक मात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ||७|| ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (८) प्रतिक्षणं प्रकुर्वन्ति चिन्तनं परवस्तुनः । सर्वे व्यामोहिता जीवाः कदा कोऽपि चिदात्मनः ||८|| अर्थ- इस संसार में रहनेवाले जीव प्रायः मोह के जाल में जकड़े हुए हैं। उन्हें अपनी सुध बुध का कुछ भी होश हबास नहीं है; इसलिये प्रतिक्षण वे पर पदार्थो का ही चिन्तवन करते रहते हैं। उन्हें ही अपनाते हैं। परन्तु शुद्धचिदात्मा का कोई विरला ही चितवन करता है। ८. ॐ ह्रीं परवस्तुचिन्तनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजसुधास्वरूपोऽहं । ताटंक जग के प्राणी मोह जाल में जकड़े सुध बुध उन्हें नहीं । पर पदार्थ ही चिन्तन करते निज चिन्ता की सुरुचि नहीं॥ कोई विरला ही निजात्मा का करता है सम्यक् ध्यान । चिदानंद चिद्रूप शुद्ध का उसको ही होता है भान || अतः तत्त्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एक मात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लेते निज पद निर्वाण ॥८॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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