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________________ २३० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी एकादशम अध्याय पूजन भव दुख क्षय करना है तो फिर आस्रव भाव करो न कभी। संवर भावों को ह्रदयंगत करके आगे बढ़ो अभी || बहु मनुज उपवन बिहारी द्यूत जल कीड़ा सुरत । युद्ध गोलीमार क्रीड़ा दत्त चित भ्रमणादि युत ॥ पर चिदात्मा के बिहारी नहीं मिलते हैं कहीं । अगर विरला मिले भी तो बात करते ही नहीं || अतः निज चिद्रूप ध्याता एक विरला जानिये । वही सर्वोत्तम सुखों क हितेच्छुक है मानिये ॥५॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (६) सिंहसर्पगजव्याधाहितादीनां वशीकृतौ । रताः सन्त्यत्र वहवो न ध्याने स्वचिदात्मनः ॥६॥ अर्थ- इस संसार में बहुत से मनुष्य सिंह सर्प हाथी व्याघ्र और अहितकारी शत्रु आदि के भी वश करने वाले हैं। परन्तु शुद्ध चिद्रूप के ध्यान करने वाले नहीं है । ६. ॐ ह्रीं सिंहसर्पगजव्याधादिवशीकरणरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजशाश्वतज्ञानवशोऽहं । ताटंक सिंह सर्प गज व्याघ्र अहितकर शत्रु सभी वश कर लेते हैं । किन्तु शुद्ध चिद्रूप ध्यान कर्त्ता न कहीं भी मिलते है ॥ अतः तत्त्व ज्ञानी विरले हैं जो करते अपना कल्याण । एक मात्र चिद्रूप शुद्ध ध्या पा लते निज पद निर्वाण ॥६॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (७) जलाग्निरोगराजाहिचौरशत्रुनभस्वताम् । दृश्यंते स्तंभने शक्तनाघस्य स्वात्मचिन्तया ||७|| अर्थ- जल, अग्नि, रोग, राजा, सर्प, चोर, बैरी और पवन के स्तंभन करने में उनकी शक्ति को दवा देने में भी बहुत से मनुष्य समर्थ है। परन्तु आत्म ध्यान द्वार पाप को
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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