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________________ २१४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी दशम अध्याय पूजन निज अंतर आलोक प्रगट कर गहराई में जाऊंगा । बीन बीन कर राग द्वेष को मैं सम्पूर्ण जलाऊंगा ॥ . जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध न ध्याता वह दुख पाता है ॥११॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१२) गौरश्वो गजो रा विरापणं मंदिरं न मे ।। पू राजा मे न देसो निर्ममत्वमिति चिंतनम् ||१२|| अर्त- गाय अश्व हाथी धन पक्षी दुकान मकान पुर राजा और देश मेरे नहीं है इस प्रकार का जो मन में चिन्तवन करना है, वह निर्ममत्व है । १२. ॐ ह्रीं पूराजादेशादिविषयकममत्वरहितनिर्ममत्वस्वरूपाय नमः । निरपेक्षस्वरूपोऽहम् । मैं अद्वैत शुद्ध हूं चेतन चिन्तन करता हूं । निमर्मत्व का यही भाव निज उर में धरता हूं ॥ जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥१२॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१३) ममेतिचिंतनाद बदो मोचनं न ममेत्यतः । बंधनं द्वयक्षराभ्यां च मोचनं त्रिभिरक्षरैः ॥१३॥ अर्थ- स्त्री पुत्र आदि मेरे हैं। इस प्रकार के विचार करने से कर्मो का बंध होता है। और ये मेरे नहीं ऐसा विचार करने से कर्म नष्ट होते हैं, इसलिये मम (मेरे) ये दो अक्षर तो कर्म बंध के कारण हैं। और मम न (मेरे नहीं) इन तीन अक्षरों के चिन्तवन करने से कर्मो से मुक्ति होती है। १३. ॐ ह्रीं बंधमोचनादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । स्वतन्त्रब्रह्मस्वरूपोऽहम् । .
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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